माँ तारा कैंसर से मुक्ति साधना maa tara cancer mukti sadhna

 

माँ तारा कैंसर से मुक्ति  साधना maa tara cancer mukti sadhna

माँ तारा कैंसर से मुक्ति साधना maa tara cancer mukti sadhna स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्यायें प्राचीन काल से ही मानव के साथ जुड़ी हुई हैं। प्रत्येक काल में उपलब्ध साधनों के द्वारा ही इनका उपचार किया जाता रहा है।

पहले वर्तमान समय के अनुसार रोगी को रोगमुक्त करने के लिये पर्याप्त सुविधायें नहीं थी। इसलिये तब रोगों को मंत्रजाप एवं विभिन्न अनुष्ठानों के माध्यम से दूर किया जाता था । आश्चर्य की तो यह है कि मंत्रजाप आदि से रोगी रोगों से मुक्त होकर स्वस्थ हो जाते थे, मंत्रजाप द्वारा रोगों से मुक्त होने की यह एक ऐसी विधा है जो हर काल और समय में प्रभावी रही है।

आज भी मंत्रजाप द्वारा सामान्य एवं जटिल रोगों से मुक्त होना सम्भव है। कैंसर तक के रोगी मंत्रजाप से स्वस्थ होते देखे गये हैं । इसमें आवश्यकता केवल इस बात की है कि अनुष्ठान एवं मंत्रजाप विद्वान आचार्य के दिशा-निर्देश में हो। मैं यहां कैंसर से मुक्ति के बारे में एक प्रयोग लिख रहा हूं।

इस अनुष्ठान के द्वारा कैंसर का रोगी ठीक हो जाता है। माँ तारा का यह अनुष्ठान भी 31 दिन का है । इस अनुष्ठान को सम्पन्न करने के लिये शुभ मुहूर्त में चांदी पर विधिवत् निर्मित तारा महाविद्या यंत्र, पंचमुखी लघु रुद्राक्ष माला, लौबान, केशर, पीली सरसों, सुपारी, लौंग, बेसन के लड्डू, ताम्र पात्र, पीले रंग के वस्त्र, पीले रंग का कम्बल आसन आदि वस्तुओं की आवश्यकता रहती है ।

 

(तारा महाविद्या यंत्र  के लिए  फ़ोन करे 85280 57364 । ) यह अनुष्ठान शुक्लपक्ष की अष्टमी तिथि से शुरू किया जाना उचित होता है लेकिन अगर रोगी की हालत अधिक खराब हो तो इसे किसी भी मंगलवार के दिन से भी प्रारम्भ किया जा सकता है। अनुष्ठान के लिये प्रातःकाल का समय उपयुक्त रहता है । इस अनुष्ठान को सम्पन्न कराने के लिये किसी योग्य विद्वान ब्राह्मण की मदद भी ली जा सकती है। ब्राह्मण को यह अनुष्ठान प्रात: 4 बजे के आसपास ही करना चाहिये।

अनुष्ठान को प्रारम्भ करने के लिये सबसे पहले आसन बिछाकर पश्चिम की तरफ मुंह करके बैठ जायें। अगर रोगी अनुष्ठान के दौरान उसी साधना कक्ष उपस्थित रहे तो अनुष्ठान का प्रभाव और भी बढ़ जाता है। अनुष्ठान कक्ष में रोगी की उपस्थिति अच्छी रहती है। अगर रोगी स्नान करने में सक्षम है तो स्नान करके अनुष्ठान कक्ष में बैठ सकता है। अक्षमता की स्थिति में हाथ, पांव तथा मुंहा का स्पंज स्नान किया जा सकता है।

यह इसलिये आवश्यक समझा जाता है कि अनुष्ठान में उच्चारित मंत्रों को रोगी सुन सके। अगर रोगी की अनुपस्थिति में अनुष्ठान किया जा रहा हो तो अनुष्ठान में उच्चारित मंत्रों को टेप कर लें। बाद में रोगी टेप चलाकर मंत्रोच्चारण को सुन सकता है। पर तारा महाविद्या यंत्र अनुष्ठान की शुरूआत लकड़ी की चौकी पर केसरी रंग का वस्त्र बिछाकर की जाती है। उस चौकी पर एक चांदी की प्लेट रखकर, उसमें केसर से त्रिकोण बनाकर उसमें तारा यंत्र को पंचामृत से स्नान करवाकर विधिवत् स्थापित किया जाता है।

इसके उपरान्त पीली सरसों की एक ढेरी बनाकर उसके ऊपर एक तांबे का पात्र रखा जाता है। उसमें थोड़ी सी पीली सरसों, पांच सुपारी, पांच लौंग, पांच बेसन के लड्डू, सप्तरंगी के थोड़े से पुष्प और तीन सप्तमुखी रुद्राक्ष रखे जाते हैं । इन तीनों रुद्राक्षों को अनुष्ठान शुरू करने से पहले रोगी के शरीर पर धारण कराया जाता है और अनुष्ठान समाप्त होने पर रोगी के शरीर से उतारकर तामपात्र में रख दिया जाता है।

पीली सरसों, सुपारी, लौंग, लड्डू, सप्तरंगी पुष्प आदि को भी रोगी के हाथों से स्पर्श करवाया जाता है। ताम्रपात्र की स्थापना के बाद उसके सामने गाय के घी का एक दीपक प्रज्ज्वलित कर रख दें। साथ ही शुद्ध लौबान का चूर्ण बनाकर उसी घी में मिला दें। शुद्ध लौबान के प्रयोग से शीघ्र ही साधना कक्ष सुगन्धित होने लग जाता है।

यदि रोगी साधना कक्ष में उपस्थित नहीं रह सकता तो उसके कक्ष में भी मंत्र पाठ सुनाने के दौरान इसी तरह का दीपक जलाकर रखने की व्यवस्था करनी पड़ती है । दीप और पात्र स्थापना के बाद यंत्र को 21 बार माँ के तांत्रोक्त मंत्र के साथ केसर तिलक अर्पित करना चाहिये और साथ ही बार – बार माँ का आह्वान करते रहना चाहिये।

माँ के आह्वान के बाद शुद्ध आचरण एवं पूर्ण भक्तिभाव युक्त होकर माँ के सामने अनुष्ठान के संकल्प को दोहराना चाहिये। फिर माँ की आज्ञा शिरोधार्य करके रुद्राक्ष माला से 21 मालाएं अग्रांकित मंत्र की जपनी चाहिये। मंत्र जाप पूर्ण हो जाने के उपरान्त 21 बार माँ के तांत्रोक्त स्तोत्र का पाठ भी करना चाहिये ।

स्तोत्र पाठ के बाद भी एक माला मंत्र जाप और करना चाहिये । मंत्रजाप और स्तोत्र पाठ पूर्णत: समर्पित भाव एवं श्रद्धा के साथ करना चाहिये । इस दौरान मंत्रजाप करने वाले ब्राह्मण की पूर्ण एकाग्रता अपने इष्ट पर बनी रहनी चाहिये। दीपक अखण्ड रूप से निरन्तर जलते रहना चाहिये ।

साधना कक्ष में किसी अन्य के आने पर पूर्णत: पाबन्दी रहनी चाहिये । यद्यपि इसमें रोगी को सुनाने के लिये मंत्रजाप और स्तोत्र पाठ को टेपरिकोर्डर में टेप करने के लिये एक व्यक्ति उपस्थित रह सकता है। इस प्रकार जब प्रथम दिन का मंत्रजाप और स्तोत्र पाठ पूर्ण हो जाये तो माँ के सामने एक बार पुनः अपने संकल्प को दोहराना चाहिये । माँ का आह्वान करते हुये उन्हें वापि अपने लोक को लौट जाने की प्रार्थना करें।

इसके उपरांत अपने आसन से उठना चाहिये। उठने के पश्चात् आसन को भी एक ओर उठा कर रख कर साधना कक्ष को बंद कर देना चाहिये। वैसे विधान तो यह है कि रात्री के समय भी माँ का आह्वान के साथ दीप प्रज्ज्वलित करके और आसन पर पुनः बैठकर एक माला मंत्रजाप एवं एक स्तोत्र पाठ पूरा करना चाहिये। पूरे अनुष्ठान के दौरान मंत्रजाप करने वाले ब्राह्मण को शुद्ध आचरण बनाये रखना चाहिये ।

अनुष्ठान का यह क्रम पूरे 31 दिन तक इसी प्रकार से बनाये रखें। इस दौरान प्रत्येक दिन प्रातःकाल यंत्र का पंचामृत से स्नान, केसर तिलक और दीप समर्पण, माँ का आह्वान एवं संकल्प क्रम को दोहरा कर मंत्रजाप व स्तोत्र पाठ करते रहना चाहिये। उसी प्रकार दिन के कार्यक्रम को विश्राम देना चाहिये।

इस दौरान प्रत्येक सातवें दिन ताम्रपात्र में भरी सामग्री को किसी केसरी वस्त्र में बांधकर सात ताजे बेसन लड्डू के साथ किसी भिखारी को दे दें अथवा वस्त्र एवं बेसन के लड्डू भिखारी को देकर शेष सामग्री को किसी बहते हुये जल में प्रवाहित कर दें ।

ताम्रपात्र को पुनः पहले की तरह ही उन्हीं सामग्रियों से भरकर यंत्र की बगल में स्थापित कर दें । 31वें दिन अनुष्ठान के पूर्ण होने की प्रक्रिया में मंत्रजाप और स्तोत्र पाठ पूर्ण करके और माँ के आह्वान के उपरान्त

परिवार एवं आस पड़ोस में माँ के प्रसाद के रूप में बेसन के लड्डू वितरण करवा देने चाहिये । पूजा सामग्री को पूर्णवत् किसी भिखारी अथवा बहते जल में पात्र एवं दीपक सहित ही प्रवाहित करवा देना चाहिये । माँ के यंत्र को अपने पूजास्थान पर स्थापित कर दें तथा रुद्राक्ष की माला को रोगी के गले में धारण करवा दें।

अनुष्ठान सम्पन्न होने पर ब्राह्मण देवता को भोजन करायें और दान-दक्षिणा देकर उन्हें प्रसन्नतापूर्वक विदाई दें। अनेक अवसरों पर इस अनुष्ठान के दौरान ही रोगी को लाभ मिलने लगता है। इस रोग के कारण रोगी के जो कष्ट निरन्तर बढ़ रहे होते हैं, उनका बढ़ता रुक जाता है और इसके बाद धीरे-धीरे रोगी स्वयं को पहले से अच्छा महसूस करने लगता है।

कुछ रोगियों को अनुष्ठान के 21वें दिन से लाभ मिलता देखा गया है। इसके बाद लाभ मिलने की कुछ धीमी होती है किन्तु रोगी का रोग धीरे-धीरे ही दूर होने लगता है।

इसमें सबसे बड़ी बात यह देखने में आती है कि जो दवायें अपना प्रभाव नहीं दे पा रही थी, अब उनका असर भी रोगी पर दिखाई देने लगता है। इसमें एक केस ऐसा देखने में आया जहां कैंसर के एक रोगी के बचने की आशा लगभग समाप्त हो गई थी। डॉक्टरों ने भी जवाब दे दिया था।

फिर एक परिचित द्वारा इस अनुष्ठान के बारे में जानकारी मिली। एक विद्वान आचार्य की देख-रेख में इस अनुष्ठान को करवाने का मन बना लिया। परिवार वालों ने यह अनुष्ठान केवल इसलिये करवाया कि चलो, अन्तिम प्रयास है, करके देख लेते हैं। बाद में इसी अनुष्ठान के कारण से रोगी के प्राणों की रक्षा हुई थी ।

विद्वान आचार्यों का मत है कि एक बार के अनुष्ठान से अगर लाभ का अंशमात्र भी दिखाई दे, तो आशा छोड़नी नहीं चाहिये। एक अनुष्ठान के बाद दूसरा अनुष्ठान भी करवाने का प्रयास करना चाहिये । यदि कोई साधक किसी गंभीर रोग से ग्रस्त है तो उसे उपरोक्त अनुसार अनुष्ठान सम्पन्न करना चाहिये ।

मेरा विश्वास है कि उसे अवश्य ही स्वास्थ्य की प्राप्ति होगी ।

 

तारा का तांत्रोक्त मंत्र

: तारा माँ का तांत्रोक्त षडाक्षरी मंत्र निम्न प्रकार है- ऐं ॐ ह्रीं क्रीं हूँ फट् माँ का तांत्रोक्त स्तोत्र अन्यत्र देखा जा सकता है ।

 किसी भी प्रकार के तांत्रिक अनुष्ठानों की शुरूआत करने से पहले इस संबंध में विद्वान आचार्य से परामर्श अवश्य कर लेना चाहिये। किसी अनुष्ठान के लिये मंत्र का चुनाव अथवा स्तोत्र आदि का पाठन पुस्तकीय आधार पर स्वयं शुरू कर लेना खतरनाक सिद्ध हो सकता है । अत: इन्हें किसी आचार्य अथवा गुरु के माध्यम से ही ग्रहण करना चाहिये