तांत्रिकों की इष्ट देवी माँ तारा का रहस्य Tara Rahasya, Ph. 85280 57364
तांत्रिकों की इष्ट देवी माँ तारा का रहस्य Tara Rahasya, Ph. 85280 57364 तंत्र साधकों, विशेषकर शाक्त सम्प्रदाय से सबंध रखने वाले तांत्रिकों के लिये दस महाविद्याओं की साधनाएं सम्पन्न करना अति आवश्यक है। इन दस महाविद्याओं को पूर्ण रूप से सिद्ध करने के बाद ही वह आगे पथ पर अग्रसर हो पाते हैं और सम्पूर्णता के साथ दिव्य आनन्द की अनुभूति प्राप्त कर पाते हैं। तंत्र साधना की इन दस महाविद्याओं में ‘तारा महाविद्या’ का अपना विशिष्ट स्थान रहा है। इसलिये तांत्रिकों के लिये तारा महाविद्या की साधना सबसे श्रेष्ठ और अद्भुत एवं प्रभावपूर्ण मानी गयी है।
इस महाविद्या को पूर्णतः से सिद्ध करते ही तांत्रिक महातांत्रिकों की कतार में सम्मिलित हो जाता है। फिर उस साधक के लिये कुछ भी अगम्य और अबोध नहीं रह जाता। प्रकृति उसकी कल्पना और इच्छा मात्र से संचालित होने लग जाती है। यद्यपि तारा महाविद्या को पूर्ण रूप से स्वयं में आत्मसात कर पाना अपवाद स्वरूप ही किसी तांत्रिक के वश की ही बात होती है। इसीलिये बहुत कम साधक ही तंत्र क्रिया के माध्यम से तारा महाविद्या को पूर्ण रूप से साथ साधने में सक्षम हो पाये हैं । भगवान राम के कुल पुरोहित वशिष्ठ जी को इस महाविद्या का प्रथम तंत्र साधक माना जाता है ।
लंकाधिपति रावण ने भी तारा महाविद्या की साधना की थी। वर्तमान युग में बंगाल के प्रख्यात तंत्र साधक वामाक्षेपा, कामाख्या के महातांत्रिक रमणीकान्त देवशर्मन, नेपाल के सुप्रसिद्ध तांत्रिक परमहंस देव आदि ही कुछ ऐसे तांत्रिक हुये हैं, जो तारा महाविद्या की दिव्य अनुभूतियां प्राप्त कर पाने में सफल हो पाये हैं। बंगाल के तांत्रिक वामाक्षेपा के संबंध में तो ऐसी किंवदंतियां प्रचलित रही हैं कि वह माँ की उपासना में इतने अधिक तल्लीन रहते थे कि उन्हें हफ्तों और कभी-कभी तो महीनों तक स्वयं की कोई सुध-बुध नहीं रहती थी।
इस शमशानवासी तांत्रिक की दयनीय हालत जब माँ से सहन नहीं होती थी, वह स्वयं आकर अपने प्रिय भक्त को अपना स्तनपान कराया करती थी । तांत्रिक देवशर्मन के संबंध में भी अनेक अद्भुत बातें प्रचलित रही हैं । शाक्त तांत्रिकों की इन दस महाविद्याओं की साधनाओं में जो साधक गहरी रुचि रखते हैं और जो इन महाविद्याओं को स्वयं में आत्मसात करना चाहते हैं, इन महाविद्याओं को सिद्ध करना चाहते हैं, उन सभी को एक बात ठीक से समझ लेनी चाहिये कि आज के जो तथाकथित तंत्र गुरु इन महाविद्याओं की साधना के संबंध में जो दिवास्वप्न दिखाते हैं, वह सब वास्तविकता से बहुत दूर की चीजे हैं।
वास्तव में तो वह स्वयं भी किसी वास्तविक अनुभूति की प्रक्रिया से नहीं गुजरे होते हैं। उनकी सम्पूर्ण बातें पुस्तकीय पाठन, मानसिक सृजन और काल्पनिक बीज से अंकुरित होती हैं। तंत्र साधकों द्वारा जो मुण्डमाला तंत्र, चामुण्डा तंत्र, शाक्त प्रमोद तारा तंत्र जैसे अनेक ग्रंथ लिखे गये हैं, उनमें दस महाविद्याओं के रूप में माँ तारा का द्वितीय स्थान रखा गया है । इन्हें विश्वव्यापिनी आद्यशक्ति का द्वितीय रूपान्तरण माना गया है, जो स्वयं को अनंत- अनंत रूपों में विभाजित करके सृष्टि की रचना और पोषण का कार्य देखती है ।
इसलिये यह महाविद्या सृजन शक्ति से सदैव सम्पन्न रहती है। तंत्र साहित्य में माँ तारा की साधना, पूजा-उपासना और तांत्रिक अनुष्ठानों पर बहुत विस्तार से प्रकाश डाला गया है। माँ तारा के ऐसे अनुष्ठानों को सम्पन्न करके अनेक प्रकार की पीड़ाओं तथा कष्टों से सहज ही मुक्ति मिल जाती है और माँ के साधक सहज ही विभिन्न प्रकार के भौतिक सुख, साधनों की प्राप्ति कर लेते हैं। इतना ही नहीं, इस महाविद्या की साधना के माध्यम से परमात्मा का सहज साक्षात्कार पाकर मुक्ति लाभ भी सहज एवं सम्भव हो जाता है।
माँ तारा का स्वरूप आद्य जननी महाकाली से बहुत साम्य रखता है । यद्यपि यह कज्जल सी काली न होकर गहरे नीले वर्ण वाली है । इसलिये इन्हें ‘नील सरस्वती’ भी कहा जाता है। माँ का यह नीला रंग अनन्त, असीम सीमाओं और क्षमताओं का प्रतीक है। माँ की इन असीम, अनंत क्षमताओं की वास्तविक अनुभूति इनकी साधना के माध्यम से ही प्राप्त हो पाती है । अतः द्वितीय महाविद्या के रूप में माँ तारा अनंत, असीम संभावनाओं की प्रतीक है। तारा की तंत्र साधना और उनके तांत्रिक अनुष्ठानों के विषय में गहराई से जानने से पहले अगर ‘तंत्र’ और ‘तंत्र की सीमाओं’ के विषय में थोड़ा जान लिया जाये तो अधिक उपयुक्त रहेगा, क्योंकि इससे तंत्र के वास्तविक रूप विशेषकर तांत्रिकों की महाविद्याओं और उनकी अनुकंपा के प्रसाद स्वरूप प्राप्त होने वाले फलों को समझने में सहजता रहेगी।