आज्ञा चक्र सम्पूर्ण प्राचीन रहस्य agya chakra
आज्ञा चक्र सम्पूर्ण प्राचीन रहस्य agya chakra आज्ञा चक्र कुछ विद्वान इसे ‘अंजना चक्र’ भी कह देते हैं। इसका स्थान दोनों भृकुटियों के मध्य-नासिका की संधि के ऐन ऊपर है। यह योग विद्या में साधना की दृष्टि से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण चक्र है। निराकार ब्रह्म का ध्यान व अन्तर्नाटक आदि इसी चक्र पर योगीजन किया करते हैं। शरीर के समस्त अवयवों तथा संस्थानों को आज्ञा गति नाद की भांति (सब ओर) आज्ञा चक्र का प्रसारण यहीं से होता है। इस चक्र तक पहुंचा हुआ योगी अधोगति को पुनः प्राप्त नहीं होता। इस चक्र का महत्त्व सिद्ध करने के लिए यही तथ्य काफी है कि इस चक्र का तत्त्वबीज मंत्र ॐ है, जो परमात्मा या ब्रह्म का प्रणव मंत्र है। क्योंकि यह अकार, उकार और मकार (अ+उ+म ) तीनों की शक्तियों का सम्मिलन है।
इन्हें ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश अथवा ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति और संकल्प/इच्छा शक्ति कहा गया है। किसी भी कार्य को सम्पन्न करने के लिए इन्हीं तीन शक्तियों की अनिवार्यता होती है। हमें उस कर्म विशेष के विषय में ज्ञान हो, उस कर्म विशेष को करने/संपादन की सामर्थ्य हो और उस कर्म विशेष को करने की हमारी इच्छा/संकल्प हो तभी हम उस कर्म विशेष को कर सकते हैं।
क्योंकि यदि हममें करने की सामर्थ्य होगी पर ज्ञान नहीं तो भी हम उस कार्य विशेष को कर नहीं पाएंगे। यदि हमें उस कार्य विशेष का ज्ञान होगा किन्तु क्रिया की सामर्थ्य नहीं, तो भी हम उसे कर नहीं पाएंगे, किन्तु यदि हममें क्रिया और ज्ञान दोनों की सामर्थ्य, किसी कार्य विशेष के सम्बन्ध में हो तो भी हम उस कार्य को तब तक नहीं करेंगे जब तक हमें उस कार्य को करने की इच्छा न हो। कोई कार्य बिना संकल्प के सम्पन्न नहीं हो सकता। इस प्रकार ये तीन मूलशक्तियां किसी कार्य के सम्पादन में अथवा व्यवहार में अनिवार्य होती हैं।
अपने-अपने स्थान पर तीनों ही शक्तियों का महत्त्व है, तो भी संकल्पशक्ति शेष दोनों शक्तियों के एकत्रित होने के बावजूद संकल्प या इच्छा के अभाव में कार्य का सम्पादन नहीं होता। दोनों ही शक्तियां (ज्ञान व कर्म/क्रिया) अकेली होने पर तो व्यवहार में आती ही नहीं, मिलकर भी व्यवहार में तब तक नहीं आती जब तक उनमें संकल्प शक्ति न आ जुड़े। जबकि संकल्प शक्ति अकेली ही यदि बलवती और प्रचण्ड हो तो ज्ञान और क्रिया शक्ति को जुटा लेती है और कार्य सम्पन्न कर लेती है।
इसी संकल्पशक्ति के अधिष्ठाता भगवान शिव हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश इन शक्तियों के अभौतिक देवता हैं। क्योंकि सृष्टि के निर्माण कार्य में मूलत: ज्ञान की आवश्यकता होती है, जिसके अधिष्ठाता देव ब्रह्मा हैं। सृष्टि के संचालन, पोषण व विकास में मूलतः क्रिया आवश्यक होती है, जिसके अधिष्ठाता देव विष्णु हैं, और संहार या विध्वंस के लिए संकल्प की मूल आवश्यकता होती है, जिसके अधिष्ठाता देव शिव हैं।
अतः सृष्टि ब्रह्मा के, संचालन/पालन विष्णु के और संहार/लय शिव के अधिकार क्षेत्र में आते हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश जहां, ज्ञान, क्रिया व संकल्प शक्ति के अभौतिक देव हैं, वहीं सूर्य, अग्नि और चन्द्र इन्हीं शक्तियों के भौतिक देव हैं जिन्हें हम इन्द्रियों द्वारा अनुभव कर सकते हैं। यहां यह भी ध्यान देना चाहिए कि संहार के देवता होने के कारण श्मशान में शिव प्रतिमा अवश्य स्थापित की जाती है। किन्तु यह ‘इकार’ की शक्ति (इच्छा शक्ति ) का ही प्रताप है जो ‘शव’ को भी कल्याणकारी ‘शिव’ में बदल देता है। सूर्य प्रकाश का स्रोत है। प्रकाश के अभाव में ज्ञान सम्भव नहीं है। अतः सूर्य को जगत् गुरु माना जाता है। अग्नि-ऊर्जा व ऊष्मा का स्रोत है। बिना ऊर्जा के कोई भी क्रिया नहीं हो सकती। क्रिया के लिए शक्ति, शक्ति के लिए ईंधन या ऊर्जा और कुण्डलिनी शक्ति कैसे जागृत करें-3 48ईंधन या ऊर्जा के लिए अग्नि आवश्यक होती है।
इसी प्रकार मन के अधिकारी देवता चन्द्रमा हैं। मन ही इच्छा या संकल्प कर सकता है। अत: संकल्पशक्ति के देवता चन्द्रमा ही माने गए हैं । समुद्रों का ज्वार-भाटा चन्द्रमा से नियन्त्रित है। स्त्रियों में रज की मासिक प्रवृत्ति चन्द्रमा से सम्बन्धित है। मानव के भावावेश तथा मन को चन्द्रमा प्रभावित व प्रवृत्त करता है। पूर्णिमा की रात और आमवस की रात में मनुष्य की मनोदशा में विशेष अन्तर पाया जाता है। अपराध शास्त्र के आंकड़ों के अनुसार के पूर्णिमा की रात में यौन सम्बन्ध अपराध विशेष रूप से अधिक घटित होते हैं। काव्य व साहित्य में चन्द्रमा, चांदनी, पूनम आदि का विशेष वर्णन चन्द्रमा से पड़ने वाले मानसिक प्रभाव को स्पष्ट रूप से परिलक्षित करते हैं। यहां तक कि चन्द्रमा की घटने बढ़ने की कला का सम्बन्ध भी बहुत से विद्वान इच्छा शक्ति से जोड़ते हैं।
शिव के मस्तक पर चन्द्रमा को सुशोभित दिखाने का एक प्रतीकात्म्क कारण यह भी है। बहरहाल। ॐ प्रणव मंत्र है जो ब्रह्मा, विष्णु, महेश की एकता यानि परमब्रह्म/परमेश्वर का द्योतक है। (ENGLISH में परमात्मा के लिए प्रयुक्त शब्द GOD भी वास्तव में इन्हीं तीन शक्तियों का परिचायक है। GENERATOR, OPERATOR और DESTRUCTER यानि उत्पन्न करने वाला, संचालित करने वाला और विनष्ट करने वाला, और यही ॐ आज्ञा चक्र का बीज मंत्र है, इससे आज्ञा चक्र का महत्त्व स्पष्ट होता है। आज्ञाचक्र का यन्त्राकार लिंग के समान है, क्योंकि स्वयं इस चक्र को लिंगाकार माना गया है।
यह सफेद रंग से प्रकाशित दो दलों/पंखुड़ियों के कमल के समान है। (विज्ञान के अनुसार पिट्युटरि ग्लैण्ड और पायनियल ग्लैण्ड को इन दलों का संकेतक माना जा सकता है।) इन दलों पर हं और क्षं अक्षर/वर्ण हैं जो इस चक्र की कमलदल ध्वनि को प्रकट करते हैं। इस चक्र का तत्त्वबीज ॐ है। अतः ॐकार इसकी बीज ध्वनि है। पंच महाभूतों से परे और सूक्ष्म ‘मह’ तत्त्व का यह मुख्य स्थान है। इसका लोक ‘तपः’ है। इसके तत्त्व बीज़ की गति नाद के समान है अतः इस चक्र का बीज वाहन नाद है, जिस पर लिंगदेवता विराजते हैं। इस चक्र के अधिपति देवता ज्ञान दाता शिव अपनी षडानन और चतुर्हस्ता शक्ति ‘हाकिनी’ के साथ है। अतः इस चक्र की शक्ति देवी ‘हाकिनी’ हैं। विभिन्न चक्रों पर ध्यान करने से जो फल साधक को प्राप्त होते हैं, वे सभी दिव्य फल अकेले आज्ञा चक्र पर ही ध्यान करने से प्राप्त होते हैं। त्रिकालदर्शन, दिव्यदर्शन, दूरदर्शन तथा मन्त्र, शक्ति व ईश साक्षात्कार का स्थान भी यही है अतः इसे शिव का तीसरा नेत्र भी कहा गया है।
इसी स्थान पर मन व प्राण के स्थिर हो जाने पर सम्प्रज्ञात समाधि की योग्यता होती है। ‘दिव्यचक्षु’ यही आज्ञा चक्र है। इसका तेज सूर्य तथा चन्द्र के सम्मिलित तेज से भी प्रबल कहा गया है। इसी चक्र के दाएं व बाएं से क्रमश: गान्धारी व हस्तिनी नाड़ियां नेत्रों तक जाती हैं, जिनका कार्य नेत्रों को प्रकाश देना है। प्रकृति व पुरुष का, जड़ व चेतन का अथवा माया व ब्रह्म का यही संयोग स्थल है। इड़ा, पिंगला तथा सुषुम्ना तीनों नाड़ियां यहां मिलती हैं अतः इसे ‘युक्तत्रिवेणी’ भी कहा जाता है।
यहीं से नेत्रों का प्रकाश बाहर भीतर के अंगों को देख सकता है। अतः इस चक्र पर ध्यान करने से वृत्तियां अन्तर्मुखी होती हैं । मन की चंचलता नष्ट होती है और भ्रान्ति दूर होकर आत्म तत्त्व में स्थिरता आती है। आज्ञा चक्र में ही गुरु की आज्ञा से शुद्ध ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति होती है। रामायण आदि धर्म ग्रन्थों में वर्णित तीर्थराज’ (प्रयाग )जहां-गंगा, यमुना व सरस्वती का संगम होता है और जिसमें स्नान करके सारे पाप धुल जाते हैं, वह तीर्थराज वास्तव में यह आज्ञाचक्र ही है। क्योंकि यहीं इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना तीनों नाड़ियों का संगम होता है। इसी में स्नान करने (तन्मय होने) से मुक्ति होती है। जैसा कि ‘ज्ञान संकलिनि तंत्र’ में कहा भी गया है- इड़ा भागीरिथी गंगा पिंगला यमुना नदी। तयोर्मध्यगता नाड़ी सुषम्णाख्या सरस्वती॥ -(ज्ञान संकलिनि तंत्र) अर्थात् इड़ा गंगा और पिंगला यमुना नदी है। इन दोनों के मध्य से जाने वाली नाड़ी सुषम्ना को ही सरस्वती कहते हैं। (और आज्ञाचक्र पर ये तीनों नाड़ियां मिलती हैं)।
आज्ञा चक्र कमल की कर्णिका में ही मन का निवास कहा गया है। स्थूल बुद्धि वाले मनुष्य स्थूल हृदय को ही मन समझ लेते हैं। वास्तव में मन तो अतिसूक्ष्म है और एक अणुमात्र है। जैसा कि ‘चरक संहिता’ में मन को परिभाषित करते हुए महर्षि चरक ने कहा भी है-‘अणुत्वं चैकत्वं मनः’ (जो अणु है और एक है, वही मन है)। अकार, उकार व मकार की संयुक्तावस्था में ब्रह्मा, विष्णु व महेश की संयुक्तावस्था का प्रतीक आज्ञाचक्र का बीज मंत्र ॐ बिन्दु, शक्ति व नाद से युक्त है। इन्हीं से तीन शक्तियों-रौडी, ज्येष्ठा और वामा का उत्पन्न होना माना गया है।
इस प्रकार नाद शिव और शक्ति के संयोगावस्था का भी प्रतीक सिद्ध होता है। आज्ञा चक्र में ध्यान से-सर्वज्ञता, सर्वदर्शिता, परकाया प्रवेश, त्रिकालज्ञता तथा स्थिरप्रज्ञता की प्राप्ति समस्त सिद्धियों सहित होती है। साधक मन, कर्म व वचन से मन सहित समस्त इंद्रियां उसके वश में रहती हैं। सर्वज्ञ और तत्त्वदर्शी होने से उत्पादन, पालन व संहार में समर्थ हो जाता है। उसमें आनन्द, विकारहीनता तथा साक्षी भाव का उदय होता है तथा जन्मान्तरों के संस्कारों के समस्त मल व पाप कट कर शुद्धावस्था को प्राप्त होता है।
अतः इस रहस्यपूर्ण आज्ञाचक्र को भली भांति समझ लेना चाहिए। यह कुण्डलिनी यात्रा का अत्यधिक महत्त्वपूर्ण व निर्णायक पड़ाव है। यद्यपि इसके आगे एक प्रमुख चक्र का भेद शेष रह जाता है, तथापि उस चक्र का भेदन करने में फिर विशेष प्रयास की आवश्यकता नहीं रह जाती, वहां स्वतः प्रवेश हो जाता है। इसीलिए आज्ञा चक्र तक पहुंचा हुआ योगी पुनः अधोगति को प्राप्त नहीं होता। उसकी इच्छा के विरुद्ध कुण्डलिनी वहां से वापस नहीं लौट पाती। इसके अलावा मनश्चक्र और बुद्धिचक्र इसी आज्ञाचक्र के दोनों दलों के संधि स्थल पर रहते हैं। षड्दलात्मक मनश्चक्र को ‘मनोनय कोष’ भी कहा जाता है।
इस संदर्भ में आगे मन सम्बन्धी प्रकरण में विस्तार से पढ़ेंगे। इसी आज्ञा चक्र में प्राण व मन को स्थिर करने से प्राप्त होने वाले दिव्यफल के विषय में कबीरदास जी ने ‘कबीर वाणी’ में अपने रहस्योत्पादक विशिष्ट अंदाज में कहा है कि- देह रूपी मकान के द्वार पर झरोखे बन्द करके मैंने प्राण रूपी चोर को पकड़ उसके भागने के समस्त मार्ग बन्द कर दिए। फिर हृदय की कुटिया में उसे बांधकर ॐ के कोड़े से उसे खूब पीटा-जिससे सहज नाद गूंज उठा। यह आज्ञा चक्र भेदना अत्यंत कठिन है इसलिए कबीर ने इसे ‘दसवें द्वारे ताला लागी’ कहा है।
यहीं आकर गुरु का महत्त्व पूर्णतः सिद्ध होता है, क्योंकि बिना गुरु की कृपा/आज्ञा से इस चक्र का ताला नहीं खुलता (इसमें प्रवेश नहीं होता)। तभी तो कबीरदास को कहना पड़ा- गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, काके लागू पांय। बलिहारी गुरु आपने, गोबिंद दियो मिलाय।। यह आज्ञाचक्र प्रभु का साक्षात्कार स्थल है। गुरु की कृपा व अनुमति से इस चक्र में प्रवेश होता है, तभी ईश्वर साक्षात्कार होता है। इसलिए गुरु द्वारा गोबिन्द मिलने की बात कही है। इस संदर्भ में यदि आज्ञा चक्र को बैकुण्ठ का द्वार मान लें तो उचित ही होगा। ऐसा मानते ही पुराणों में वर्णित कथाओं का मर्म स्पष्ट हो जाएगा। बैकुण्ठ के द्वार पर वज्रकपाट लगे हैं। दो द्वारपाल वहां सतत पहरा देते हैं। बैकुण्ठ की सात ड्योढ़ियां हैं।
ब्रह्मा जी के सनकादि मानस पुत्र भागवत पुराण के अनुसार जब विष्णु दर्शन की इच्छा से बैकुण्ठ गए तो छ: ड्योढ़ी चढ़ जाने के बाद सातवीं पर चढ़ने से जय-विजय दोनों द्वारपालों ने उन्हें रोक लिया। यहां सातों ड्योढ़ियों, सात चक्रों की तथा बैकुण्ठद्वार आज्ञाचक्र का प्रतीक है और बैकुण्ठ के दोनों द्वारपाल इस चक्र के दो दलों के वर्ण ‘हं’ वर्ण के प्रतीक हैं। अभिप्राय यही है कि इस चक्र का भेदन ब्रह्माजी के मानस पुत्रों, योग विद्या में प्रवीण सनकादि ऋषियों के लिए भी कठिन है। फिर साधारण योगियों की तो बात ही क्या। इस प्रकार विभिन्न धर्मग्रन्थों में अन्यत्र भी इस प्रकार के कूट संकेत कथाओं के माध्यम से बिखेरे गए हैं।
जैसे वाल्मीकिय रामायण में नौ द्वारों व सात प्रकोष्ठों वाली अयोध्या नगरी का वर्णन जहां राजा दशरथ अपनी तीन रानियों के साथ रहते हैं-वास्तव में शरीर (नौ छिद्र और सात चक्र) में रहने वाले दसों इंद्रियों के राजा मन (दशरथ से सिद्ध होता है-दस घोड़ों का रथी या दसों दिशाओं में जाने वाला रथ-दोनों ही प्रकार से इसका आशय ‘मन’ ही सिद्ध होता है) का यह कूट संकेत है जिसकी तीन रानियां सात्त्विक, राजसिक व तामसिक बुद्धि ही हैं। मन और बुद्धि के संयोग से उत्पन्न होने वाली चेतना ही राम हैं। चेतना के अभाव में बुद्धि तो जड़ होकर रह सकती है। शरीर भी निष्क्रिय (कोमा में) होकर रह सकता है किन्तु मन नहीं । अतः राम के बनवास पर केवल दशरथ के ही प्राण छूटते हैं, अन्य किसी के नहीं। इसी प्रकार के बीसियों उदाहरण हैं जो रामायण या पुराणों में कथाओं के माध्यम से गुप्त संकेतों में पूरा योग-रहस्य समझाते हैं। सभी को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत कर पुस्तक के पृष्ठों का अतिक्रमण मूल विषय के साथ अन्याय होगा।
पाठकों को प्रेरित करने के लिए इतना दिशा-निर्देशन भी बहुत है कि वे धर्मग्रन्थों को मात्र कथाओं के रूप में न लें-उसमें छिपे मर्म को खोजें। योग या अध्यात्म जैसा गूढ, रहस्यपूर्ण व शुष्क विषय जन सामान्य या औसत बुद्धि के लोगों का भी कल्याण कर सके अत: उसे कथानक के रूप में जहां तहां पर प्रस्तुत किया गया है और यह निर्देश भी दिए गए हैं कि रामायण बराबर पढ़ें। पुराण बार-बार पढ़ें। बार-बार पढ़ने से ग्रन्थ समझ में आएगा। बार-बार का अभिप्राय यही है कि धीरे-धीरे अभ्यास व बुद्धि की रगड़ संस्कार भी दृढ़ करेगी और प्रकाश भी उत्पन्न करेगी। जब प्रकाश उत्पन्न होगा तो पाठक कथाओं में छिपे मर्म को शनैः शनैः पहचानने लगेगा। अस्तु ।
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