Home दैविक साधना शिव तंत्र रहस्य – Shiv Tantra Rahasyamaya Ph. 85280 57364

शिव तंत्र रहस्य – Shiv Tantra Rahasyamaya Ph. 85280 57364

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शिव तंत्र रहस्य – Shiv Tantra  Rahasyamaya Ph. 85280 57364
शिव तंत्र रहस्य - Shiv Tantra Rahasyamaya Ph. 85280 57364

 

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शिव तंत्र रहस्य – Shiv Tantra Rahasyamaya Ph. 85280 57364 तंत्र क्रियामक पद्धति साधना जगत में एक की अपेक्षा किसी हैं। इस बहुता व्यवस्था की ही दूसरी संज्ञा है बात की पुष्टि होती है कि प्रत्येक सम्प्रदाय का अपना विशिष्ट के इस तथ्य से, है। तंत्र रहा है, चाहे वह वैष्णव सम्प्रदाय चाह हो

अथवा अन्यान्य कोई भी सम्पदा निय ज्यो और प्रत्येक तंत्र का आधार रही है शिवोपासना ! तं शब्द से आज का समाज सन्तुष्ट नहीं है। तंत्र के प्रति समवेत् विरोध का स्वर सुनाई देता है दूसरी ओर समाज का महत्वाकाक्षी वर्ग तांत्रिक साहित्य की ओर आकर्षित हो रहा है।

प्रायः जादुई क्रियाकलाप की सीमा में ही मि अनैतिक या और सृजित विद्या में शिव रूप में मान्यता प्राप्त है समय के परिवर्त्तमान चक्र से तंत्र शब्द की सामाजिक क्रिया-पक्ष को समाज के साथ अविरत सुनियोजित नहीं किया जा सकता है।

 

 

आत्मा के परिज्ञान के परिवेश को जब जगत से उठाकर बाह्य मंडल में आरोपित करने की स्थिति की अवस्थिति को इसमें प्रत्यभिज्ञान कहा गया है. | लेकिन गर्हित कार्य की सर्वदा निन्दा की गई है। साधना के क्षेत्र में भौतिक सुखों की उपेक्षा ही नहीं इनकी अप्रस्तुति भी की गई है।

तंत्र में कुल कुण्डलिनी को जगाकर मणिपुर निवासी आनन्दमयी शक्ति के साथ जीव के विलीनीकरण का आयकरण किया गया है। इस | ब्रह्ममयी शक्ति के सम्पर्क से जीव शिव स्वरूप को प्राप्त करता है तंत्र निश्चित से वह दिया है, जिसमें जीव | की माया का साक्षात्कार योगमाया से होता है।

योग समत्व की अमिधा शक्ति है। समय की इसी शक्ति की पाविद्या है। माया अहेतुक और हेतुक ज्ञान से सम्बन्धित है। तांत्रिकगण माया को ज्ञान का भी प्रतीक मानते हैं। आत्मचेतना के उन्नयन की विद्या के रूप में तंत्र का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है। तंत्र प्रकाशमार्ग का सोपान है।

मानव अपने जीवन के अंधकार को निर्वासित करने के लिए मंत्र की प्रत्यभिज्ञा की ज्योति को प्राप्त करना चाहता है। तंत्र का मूल उद्देश्य भौतिक अंधकार से निवृत्ति प्राप्त करना है।

वस्तुतः तंत्र सनातन सात्विक ज्योतिर्मयी शक्ति की उपासना है तमोगुण और रजोगुण के भयावह चक्र से दूर रहकर सहस्र सूर्य के आलोक में प्राप्त और प्राप्ति के नियम के विनियमन की व्यवस्था ही तंत्र है।

तंत्र कभी भी निकृष्ट कर्म का परिचायक नहीं है। आत्मशक्ति की चेतना से मानव पूर्णत्व की ओर अग्रसर होता है और इसके विपरीत की अवस्था में मानव निर्बल होकर सत्यज्ञान से दंचित हो जाता है। तंत्र साधना का सम्बन्ध आत्म प्रत्यक्षीकरण से है स्वयं के प्रति बोध को उद्बोधित करना ही तंत्र का कार्य है। तंत्र इससे समता की भावना उत्पन्न होती है।

समता से सत् असत्, त्याज्य और अत्याज्य का भेद समाप्त होता है। आत्मज्ञान की ज्योति इससे प्रज्ज्वलित होती है इसलिए यह कहा जा सकता है, कि आत्मज्ञान की प्रत्यभिज्ञावेजा में शंकर शिष्यों की अपने अनुभूति-जन्य सादृश्यता की वाचितानुवृत्ति में नहीं उलझते हैं. अपितु सहज दर्शन की अनुभूति होती है। तंत्र चेतना की की अवस्था को वहां तक पहुंचा देता है जहां चित की चिन्ता चिन्मयी में सिमट जाती है।

समदर्शीत्य के ना मौलिक आयाम को तंत्र की भित्ती पर ही चित्रित किया की जा सकता है। को व हरु प्त गम्भीर, गूड़, चिन्तनयुक्त, विद्वतपूर्ण लेखनी से युक्त ‘डॉ० मोहनावन्द मिश्र का लेख प्रामाणिक ज्ञान का ही परिचायक है।

नीव नत्व की तात्रिक साधना के साथ में अनेक सम्प्रदायों का रूप स्थिर हुआ चाहे शैव, शाकत, वैष्णव और बौद्ध हो सबने तंत्र की वीणा के तारों पर अपने विचारों को राग और तान दिया तंत्र के विचारों की प्रक्रिया को विशेषता यह है कि जीवन और शक्ति के उभय सिद्धान्त पर यह अवलम्बित है।

शक्ति के अभाव में शिव तो शव ही हो जाते है अतः प्रधानता शक्ति की है। वैष्णवगण इसे राधाकृष्ण तथा सीताराम की संज्ञा के नाम से सम्बोधित करते हैं बौद्ध उपासक इसे शून्यता तथा प्रशोन्याय के रूप में परिभाषित करते हैं। अनादिकाल से ही तंत्र साधना की परम्परा इस देश में वर्तनान है। योगी इस रहस्यमयी साधना में शिव | और शक्ति की उपासना करते आ रहे है। इस रहस्यमय |

साधना को तंत्र साधना के नाम से जाना जाता है। इस | साधना का प्रभाव सभी सम्प्रदायों पर पड़ा है। यह एक उदात साधना है, लेकिन नौतिकवादी साधकों ने इसे गति रूप में जीवित रखने का प्रयास किया।

वैद्यनाथ धाम एक प्रसिद्ध शक्तिपीठ है। यहां तंत्र साधना की परम्पर प्राचीनकाल से ही वर्तमान है। वैद्यनाथ धान एक प्रसिद्ध तीर्थ भी है। यहां द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से नवम् वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का मंदिर है।

उत्तर गुप्त युग में आदित्यसेन गुप्त इस भूभाग का शासक था। पाल काल में बंगाल के शासकों ने इस पीठ को शिव की प्रशस्ति में अंकित किया 9 वीं सदी के बटेश्वर लेख से भी वैद्यनाथधाम के शिवमंदिर की महत्ता का प्रतिपादन होता है।

सेन वंशीय राजाओं ने भी वैद्यनाथ की प्रशस्ति का गायन किया है। मुस्लिम शासकों के युग में भी इस तीर्थ की लोकप्रियता थी। प्राचीनकाल में वैद्यनाथधाम में कामालिक और नाथसिद्धों की अधिकता थी पूर्व मध्यकाल में यहां शिव की उपासना पद्धति में तात्रिक विधि का ही वर्चस्व था।

मुस्लिम शासन के कुछ पूर्व ही यहां की तांत्रिक उपासना की परम्परा में कुछ ढीलापन आया। डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर में लिखा है कि आदिशंकर यहां आये थे। उनके दिग्विजय की गाथा में भी कापालिकों के साथ उनके विवाद की चर्चा है। उत्त समय यहाँ नाथ मत प्रचलित था। नाथ मत भी शैव परम्परा से सम्बन्धित है, जो शव-पाशुपत कापालिक और योगिनी कौल मतों की परम्परा से विकसित है। मत्स्यन्द्रनाथ योगिनी कॉलमत के प्रवर्तक थे गोरखनाथ का संबंध पाशुपत-व से था।

इन्होंने अपनी साधना की दुरुहता और विभिन्नता के कारण इस मार्ग को कष्टकर और भयावह बना दिया वैद्यनाथ स्थित नाथबाडी नाथों और रिद्धों की परम्परा का साक्षी है। यहां आज भी नाथों की अनेक समाधियां है। स्थानीय तीर्थपुरोहितों के बीच इनकी अनेक गधा प्रचलित है नाथों का यह सम्मम स्थल महाराजा गिद्धौर के अधिकार में है। वैद्यनाथयम एक शैवपी के रूप में ही नहीं शक्तिपीठ के रूप में भी प्रसिद्ध है। सती का हृदय यहां अवस्थित है शिव और शक्ति का प्रबल समर्थन इससे होता है। धर्म के सदृश्यात्मक धरतल पर मातृशक्ति की पूजा की परम्परा यहां प्राचीनकाल से ही प्रचलित है।

नौवी सदी से ही तांत्रिक उपासना की मध्यकालीन यहां प्रचलित है। मध्यकालीन भारत में शून्यता की उनला की प्रबलता बढ़ी और व्यापक रूप में पूर्वाचल में इसकी साधना को साधकों और आराधकों ने अपनाया 12 वी सदी के बाद मिथिला के उपासकों को सामाजिक परम्परा यहां स्थापित होने लगी।

मिथिला में “भैरवो यत्र लिगम के उपासकों की संख्या अधिक है। यहां भी मैथिल तीर्थों का हुआ और तांत्रिक विधि की साधना का प्रचलन हुआ पौराणिक साहित्य में भी इस शक्तिपीठ का वर्णन है। तंत्र में भी प्रमुख शक्तिपीठ के रूप में इस क्षेत्र का उल्लेख है। इस पीठ की अधिष्ठात्री देवी के रूप में गला महाविद्या का महत्व है। किसी-किसी पुराण में जयदुर्गा का यह की पीठाविष्ठात्री देवी के रूप में उल्लेख है। यहां चौबीत नेतृकाओं की भी पूजा होती है।

पशुबलि की प्रथा भी यह प्रचलित है. यहां शक्ति की उपासना के अनेक विग्रह है जैसे सध्या काली, मनसा बंगला, अन्नपूर्णा जयदुर्गा त्रिपुरसुन्दरी जगज्जननी संकष्टा सीता राधा तारा और महागौरी भीतर खण्ड के प्राचीन कुण्ड में महाप्रसाद से हवन की प्रथा आज भी प्रचलित है की भी नित्य पूजा होती है।

श्रीविद्या आदि विद्या है इसकी उपासना से पराशकिका अगहन किया जाता है। यहां गायत्री की उपासना भी व्यापक स्तर पर होती है। शक्ति की उपासना का आदिरूप ही है। गायत्री शक्ति भी श्री विद्या की उपासना से सम्बन्धित है। आज भी शंकराचार्य द्वारा स्थापित चारों पीठों में श्रीविद्या की उपासना की परम्परा विद्यमान है। वैद्यनाधाम में हमशान साधना होती है।

बंगाल के अनेक साधक यहां आकर राधना करते थे. वैद्यनाध्यान के रक्षक वैद्यनाथ ही भैरव के रूप में विराज है। समस्त वैद्यनाथधाम के भौगोलिक स्वरूप को शिवपुराण में चिताभूमि के नाम से जाना जाता है। यह आज भी शक्ति साधना की भूमि है।

 

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