यह तंत्र Tantra साधना की एक विशिष्ट प्रक्रिया है। दस महाविद्याओं की साधना का भी यह एक प्रमुख अंग रही है । यद्यपि इस पद्धति में पूर्ण सफलता पाने के लिये अभ्यास के साथ-साथ साधना में पूर्ण श्रद्धा, गहन आस्था, दीर्घ धैर्य और समर्पित भाव की आवश्यकता होती है । इसलिये जब तक तंत्र Tantra साधक मानसिक रूप से पूर्णतः साधना के लिये तैयार न हो जाये, तब तक उसे इस पद्धति में दीक्षित नहीं करना चाहिये अन्यथा साधना में निष्फल रहने की पूरी संभावना बनी रहती है । तंत्र Tantra साधना का जो दूसरा तांत्रिक विधान है, उसमें भी मंत्रजाप, स्तोत्र पाठ, हवन आदि के उपक्रमों को जारी रखना पड़ता है, लेकिन इस पद्धति में साधक को मानसिक रूप से शीघ्र तैयार करने के लिये विभिन्न तरह की तांत्रिक वस्तुओं, पूजा सामग्रियों, यंत्र आदि की आवश्यकता पड़ती है ।

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तंत्र Tantra साधना का यह एक विस्तृत विधान है और इसकी विस्तारपूर्वक यहां व्याख्या करना संभव नहीं है, क्योंकि बहुत से तंत्र Tantra साधक तांत्रिक वस्तुओं और तांत्रिक क्रियाओं के रूप में ऐसी चीजों का प्रयोग भी करने लग जाते हैं, जो सामान्य साधकों के लिये घृणास्पद होती हैं । तंत्र Tantra साधना का जो तीसरा मार्ग अथवा तीसरा रूप रहा है, वह मुख्यतः क्षणिक इच्छाओं की पूर्ति एवं जीवन में नित नवीन उत्पन्न होने वाली विविध तरह की परेशानियों से मुक्ति पाने पर आधारित है। तंत्र Tantra साधना का यही रूप अब सर्वत्र दिखई पड़ता है।

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तंत्र Tantra साधना के इस रूप को ही तांत्रिक अनुष्ठान कहा जाता है । तंत्र Tantra के इस प्रचलित रूप में स्वयं साधक को आत्म रूपान्तरण की प्रक्रिया से गुजरना आवश्यक नहीं होता । वह जिस रूप अथवा जिस अवस्था में होता है, वहीं ऐसे तांत्रिक अनुष्ठानों को सम्पन्न कर सकता है अथवा किसी अन्य तांत्रिक के द्वारा अपने अभीष्ट कार्य के निमित्त सम्पन्न करवा सकता है। तांत्रिक अनुष्ठानों का यह रूप है तो बहुत प्रभावशाली और इन अनुष्ठानों के चमत्कार भी शीघ्र देखने को मिलते हैं, किन्तु इनका प्रभाव सीमित समय तक ही रहता है ।

इन अनुष्ठानों के माध्यम से साधकों के विविध तरह के दुःख, दर्द, क्लेश, पीड़ाएं आदि शीघ्र समाप्त तो हो जाती हैं, पर न उन पर उनके इष्ट की कृपा सदैव बनी रह पाती है और न ही वह साधक दिव्य अनुभूति के स्तर तक पहुंच पाते हैं । इष्ट से साक्षात्कार, शाश्वत सत्य भरपूर आनन्द लूटते रहते थे । वह भी अपने गुरु मच्छन्दर नाथ की भांति मांस, मदिरा, मैथुन, मुद्रा और मत्स्य के भोग में निमग्न रहते थे । इन क्रियाओं का पूर्णतः भोग करने एवं इनसे विरक्त होकर ही वे कामाख्या त्यागकर हिमालय यात्रा पर निकले थे । महर्षि महातपा के द्वारा ही काशी के प्रसिद्ध संत और लाहड़ी महाशय के समकालीन प्रसिद्ध योगी त्रैलंग स्वामी को तंत्र Tantra साधना की दीक्षा प्रदान की थी ।

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इनके अलावा मेहर बाबा, गढ़वाल के प्रसिद्ध संत गूदड़ी बाबा, नैनीताल के हेडाखान बाबा, हरिहर बाबा, बंगाल के चैतन्यपुरी और हीरानन्द स्वामी आदि अनेक ऐसे सिद्ध महापुरुष हो चुके हैं, जिन्हें तंत्र Tantra साधना संबंधी दीक्षाएं महर्षि महातपा के द्वारा प्रदान की गई थी । ऐसा भी माना जाता है कि महाकाली के परम साधक रामकृष्ण परमहंस जिस तंत्र Tantra साधना का नियमित अभ्यास किया करते थे और जिसके प्रभाव से उनकी परम आराध्य माँ काली स्वयं अपने हाथों से रामकृष्ण को महाप्रसाद का भोग प्रदान करने लगी थी, वह पद्धति भी क्रियायोग पर ही आधारित थी । संभवत: वह पद्धति उन्हें ज्ञानगंज से संबंधित किसी सिद्ध साधक ने प्रदान की होगी । क्रियायोग पद्धति की तरह ही हठयोग पर आधारित तंत्र Tantra साधना की एक और विशिष्ट प्रक्रिया है, जो कुण्डलिनी जागरण के निमित्त काम में लाई जाती है। इस प्रक्रिया के माध्यम से भी तंत्र Tantra साधक आत्मरूपान्तरण की प्रक्रिया से गुजरते हुये और कुण्डलिनी के समस्त चक्रों को क्रमशः जाग्रत करते हुये साधना के अन्तिम लक्ष्य परमात्मा के दिव्य साक्षात्कार को प्राप्त कर लेता है ।

]तंत्र Tantra साधना का जो दूसरा रूप रहा है, वह उपासना एवं समर्पण की पद्धति पर आधारित है। इसमें मंत्र आदि विशिष्ट प्रक्रियाओं के माध्यम से स्वयं की अन्तःचेतना में जन्म-जन्मान्तर से सदैव सुषुप्तावथा में पड़ने रहने वाले चेतना केन्द्रों को जाग्रत करना होता है। इन प्रक्रियाओं के माध्यम से साधक की अन्तः चेतना अपनी इष्टदेवी के साथ जुड़ने लगती है। इनमें तंत्र Tantra साधक पूर्णतः समर्पित भाव से अपनी आराध्य शक्ति को समर्पित हो जाता है। धीरे-धीरे ऐसी स्थिति आ जाती है, जहां साधक और साध्य में कोई भेद नहीं रह जाता । दोनों का परस्पर मेल हो जाता है तथा साधक के समस्त कर्म उसके आराध्य के बन जाते हैं । तंत्र Tantra साधना की इस पद्धति के माध्यम से जैसे-जैसे साधक के चेतना केन्द्र सक्रिय और जाग्रत होते चले जाते हैं, वैसे-वैसे ही उसकी चेतना शक्ति का भी विस्तार होता चला जाता है । अन्ततः वह स्वयं विराट का अंश बनने लग जाता है । एक अवस्था के बाद अपनी साधना के माध्यम से अपनी इष्टदेवी का दिव्य साक्षात्कार पाने में भी वह सफल हो जाता है ।

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इस साधना पद्धति की प्राचीन समय से ही दो प्रकार की प्रक्रियायें प्रचलित रही हैं । इनमें से एक प्रक्रिया विशुद्ध रूप में वैदिक पद्धति पर आधारित है, जबकि दूसरी की उपलब्धि और आत्म साक्षात्कार जैसी कोई उपलब्धि उन्हें नहीं होती । ऐसे सभी तांत्रिक अनुष्ठान तीन पद्धतियों से सम्पन्न किये जाते हैं । इनमें एक पद्धति अघोर क्रियाओं पर आधारित है, जिसमें तांत्रिक शमशान भूमि में रहकर ऐसे समस्त अनुष्ठानों को सम्पन्न करने का प्रयास करता है । दूसरी पद्धति वामाचार्य क्रियाओं पर आधारित रहती है, जिसमें अनुष्ठान को पूर्ण रूप से सम्पन्न करने के लिये पंचमकारों पर जोर दिया जाता है, जबकि तीसरी पद्धति शुद्ध आचरण से संबंधित वैदिक पद्धतियों पर आधारित रहती है। तांत्रिक अनुष्ठान की इन्हीं क्रियाओं के साथ तंत्र Tantra की मारण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन, विद्वेषण जैसी क्रियाओं का गहरा सम्बन्ध रहता है । इन मारण, मोहन, उच्चाटन क्रियाओं के माध्यम से एक भ्रष्ट तांत्रिक किसी भी व्यक्ति को मृत्यु के समकक्ष पीड़ाएं दे सकता है ।

 

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मैं रुद्र नाथ हूँ — एक साधक, एक नाथ योगी। मैंने अपने जीवन को तंत्र साधना और योग को समर्पित किया है। मेरा ज्ञान न तो किताबी है, न ही केवल शाब्दिक यह वह ज्ञान है जिसे मैंने संतों, तांत्रिकों और अनुभवी साधकों के सान्निध्य में रहकर स्वयं सीखा है और अनुभव किया है।मैंने तंत्र विद्या पर गहन शोध किया है, पर यह शोध किसी पुस्तकालय में बैठकर नहीं, बल्कि साधना की अग्नि में तपकर, जीवन के प्रत्येक क्षण में उसे जीकर प्राप्त किया है। जो भी सीखा, वह आत्मा की गहराइयों में उतरकर, आंतरिक अनुभूतियों से प्राप्त किया।मेरा उद्देश्य केवल आत्मकल्याण नहीं, अपितु उस दिव्य ज्ञान को जन-जन तक पहुँचाना है, जिससे मनुष्य अपने जीवन के गूढ़ रहस्यों को समझ सके और आत्मशक्ति को जागृत कर सके।यह मंच उसी यात्रा का एक पड़ाव है — जहाँ आप और हम साथ चलें, अनुभव करें, और उस अनंत चेतना से जुड़ें, जो हमारे भीतर है ।Rodhar nathhttps://gurumantrasadhna.com/rudra-nath/