mantra aur devta ka swaroop मंत्र और देवता का स्वरूप
mantra aur devta ka swaroop मंत्र और देवता का स्वरूप प्रत्येक कार्य को आरम्भ करने वाली एक शक्ति होती है। हमारे शास्त्रों में प्रत्येक पदार्थ का एक देवता होता है। पृथ्वी, देवी, गंगादि नदियां ऋतुओं के देवतादि इस सिद्धान्त से पूजित होते हैं।
प्रत्येक वस्तु और अवस्था एक क्रिया एवं गति का परिणाम है, जो शक्ति इस गति को देख रही है वह इस क्रिया से उत्पन्न वस्तु तथा अवस्था की देवता कही जाती है जैसे कि मनुष्य के शरीर में प्राण है, जीव है वैसे ही सब अवस्था है और अवस्थाओं के भी जीव हैं, इन जीवों को शास्त्र में देवता कहते हैं। पृथ्वी का जीव पृथ्वी देवता है, जल का जीव वरुण देवता है। शरीर सर्वदा जड़ होता है। वह शरीर जड़ का हो अथवा चेतन का, शास्त्र सम्बन्धी जड़ के उपासक नहीं, उस जड़ में व्याप्त हो कर उसे संचालित करने वाली चेतन शक्ति की हमारे यहां उपासना होती है। इसी अन्दरूनी चेतन शक्ति को देवता कहते हैं। mantra aur devta ka swaroop
जैसे तिलों में तेल, दूध में घी अव्यक्त रूप में और शरीर में आत्मा रहती है,
वैसे ही इस व्यापक विश्व के पदार्थों के सम्बन्धी देवताओं के भी अपने-अपने दिव्य लोक हैं, शरीर का केन्द्र हृदय कहा जाता है, ऐसे ही उन लोगों को उन वस्तुओं का मूलकेन्द्र कहना चाहिये, जैसे सूर्य मण्डल नेत्र अग्नि प्रकाश करता है, इसी तरह ऊष्ण का केन्द्र है और उसका स्वामी सूर्य देवता का इसमें निवास है।
प्रत्येक मन्त्र एक प्रकार कम्पन पैदा करता है। mantra aur devta ka swaroop
जिस प्रकार कि कम्पने से वह अवस्था या वस्तु बनती है, जिसके बनने को वह मन्त्र बनाया गया है। उस अवस्था और वस्तु का संचालक जो देवता है, वही उस मन्त्र का भी देवता होगा । मन्त्र की (कामना) अथवा विश्वासपूर्वक अनुष्ठान उस देवता को अपनी ओर आर्कषण करता है। यदि कोई मनुष्य हमारे कथन अनुसार कोई कार्य करे तो हम स्वयं उसकी ओर आकर्षित हो जायेंगे और उसकी मनोकामना पूर्ण करने का यत्न करेंगे। mantra aur devta ka swaroop
इसी प्रकार जब मन्त्र जप के द्वारा हम वैसी कम्पन जैसे उस मन्त्र के देवता को उत्पन्न करना पड़ता है, स्वयं उत्पन्न करते हैं तो उसकी प्रसन्नता होती है और वह हमारे मन की कामनाओं को शीघ्र प्रगट करने में सहायक होते हैं। प्रत्येक कम्पन एक आकार उत्पन्न करता है इस प्रकार कम्पन आकार का परस्पर सम्बन्ध ही साधक को सफलता प्रदान करता है। mantra aur devta ka swaroop
साधक मन्त्र के जप द्वारा एक कम्पन उत्पन्न करता है और वह उस कम्पन से ऐसा आकार बनाना चाहता है जो उसके अभीष्ट कार्य के प्रेरक देवता का आकार हो, वह। उस देवता की एक प्रकार से मूर्तिपूजा करने का यत्न करता है। इस पूजा या आकर्षण
की सफलता उसके मन्त्र के कम्पन पर निर्भर है। यदि मन्त्र का उच्चारण शुद्ध-विधि से । किया जाता है तो कम्पन ठीक होगा। यदि उच्चारण शुद्ध नहीं तो कम्पन ठीक आकार नहीं बनावेगा और आकार ठीक फल नहीं देगा। विपरीत फल होने का भय हो सकता। है। जप के साथ यदि जप करने वाला मन्त्र के देवता का ध्यान भी करता है, तो ध्यान । का आकार एक कम्पन उत्पन्न करेगा दोनों का एक संघर्ष होगा अर्थात् दोनों एक हो ।
कहते हैं। mantra aur devta ka swaroop
बार-बार जप करने से मनोरथ की –
का सिद्धि प्राप्त होती है वह मन्त्र कहलाता हैमननात् जायते यस्मात तस्मात मन्त्रः प्रकीर्तितः ।
जपात् सिद्धिर्जप्रात् सिद्धिर्जपात सिद्धि: न संशयः ॥ (2) धर्म कर्म और मोक्ष की प्राप्ति हेत घेणा देने वाली शक्ति को मन्त्र (3) देवता के सूक्ष्म शरीर को या इष्टदेव की कृपा को मन्त्र कहत (4) दिव्यशक्तियों की कृपा को प्राप्त करने में उपयोगी शब्द शक्ि
वाली शक्ति को मन्त्र कहते हैं।
त करके अपने अनुकूल बनाने वाली
प्त करने में उपयोगी शब्द शक्ति को मन्त्र विद्या को मन्त्र कहते हैं।
(5) विश्व में व्याप्त गुप्त शक्ति को जाग्रत करके अपने अनुकूल मंत्रों की उपासना में भावना और प्रों का (6) गुप्त शक्ति को विकसित करने वाली विद्या को मन्त्र कहते हैं।
वन आर शब्दों का समन्वयात्मक सम्बन्ध होता है। भावनात्मक शक्ति की तरंगे और शब्दों की तरंगें मिलकर मन प होता है। इन दोनों में जितना स्पष्ट सामञ्जस्य रहेगा, उतना ही स्पष्ट हमारा साध्य होगा। साधक मन्त्र जाप में जिस दे देवता के स्वरूप एवं गुणों का चिन्तन करते हुए जप करता है, उसे उसी देवी यादव शक्ति का आभास होने लगता है।
वही बीजाक्षर उसे अपने में समाहित कर लत जिससे मनुष्य शक्ति सम्पन्न होने लगता है। धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष सभा क्ष मन्त्रों की प्रतिष्ठा व्याप्त है। भारतीय जन-जीवन में गर्भ एवं जन्मकाल से लेकर मृत्यू पर्यन्त मनुष्य के महत्त्वपूर्ण संस्कारों तथा शभाशभ अवसरों एवं कत्यों में मन्त्र प्रयोग का प्रतिष्ठा एवं महत्त्व विशेष रूप से देखने को मिलती है।
की
वैदिक एवं पौराणिक ग्रन्थों में आदि तत्त्व ॐकार, भगवान विष्णु, शिवजी (रुद्र देव), शक्ति, आदि देवताओं के स्तुति परक मन्त्र अनेक स्थलों पर मिल जाते हैं, पर उपनिषदों वेद, पुराणों में भगवान शिव की अदभुत और अलौकिक महिमा का व वर्णन मिलता है। वेदादि शास्त्रों में ‘शिव’ शब्द का अर्थ कल्याणकारी परब्रह्म कहा गया है। शिव और शक्ति भी एक दूसरे से उसी प्रकार अभिन्न एवं पूरक हैं जिस प्रकार सूर्य और उसकी किरणें, अग्नि और उसकी ज्वाला। शिव की पूजा शक्ति की पूजा है तथा शक्ति की उपासना शिव की उपासना है।
त्रिगुणात्मक प्रकृति होने से शिव ही ब्रह्मा रूप से सृष्टि की रचना करते हैं, विष्णुरूप से जगत की पालना करते हैं तथा । रुद्ररूप से संहार करते हैं। तात्त्विक दृष्टि से तीनों देव एक ही परमात्म स्वरूप हैं। mantra aur devta ka swaroop
ईश्वर और महेश्वर शिव जी के ही पर्याय रूप हैं। मंत्रयोग, हठ योग, तन्त्र योग, लय व संगीत । शास्त्र एवं नाट्य शास्त्र के आदि प्रवर्तक भगवान् शिव ही हैं। पुराणों में ऐसा आख्यान । मिलता है कि एक समय भगवान् शंकर आनन्दमग्न होकर नृत्य कर रहे थे और वह डमरू बजाते हुए ताण्डव नृत्य में समाधिस्थ से हो गए। उस समय उनके डमरू की ध्वनि से अ इ उ ए इत्यादि चौदह सूत्रों का प्राकट्य हुआ। इन्हीं के आधार पर पाणिन्ि मुनि द्वारा मन्त्र विद्या का सूत्रपात हुआ।
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