कुण्डलिनी की प्रमुख नाड़ियां – Main Nadis of Kundalini
कुण्डलिनी की प्रमुख नाड़ियां – Main Nadis of Kundalini नाड़ियां एवं कुण्डलिनी प्राणवाहक प्रमुख नाड़ियां मनुष्य के शरीर में 72000 नाड़ियों का होना माना गया है। बहुत से ग्रन्थों में असंख्य नाड़ियों का भी जिक्र आता है। (जब संख्या बहुत अधिक हो, तो उसकी महत्ता को दर्शाने के लिए भी असंख्य कह दिया जाता है।
अत: यह कोई ऐसा विरोधाभास नहीं है)। इन नाड़ियों में 15 प्राणवाहक नाड़ियों को प्रमुख माना गया है। इन पन्द्रह नाड़ियों को क्रमशः सुषुम्ना, इड़ा, पिंगला, गांधारी, हस्तजिह्वा, पूषा, यशस्विनी, शूरा, कुहू, सरस्वती, वारुणी, अलम्बुषा, विश्वोदरी, चित्रा और शंखिनी नाम से जाना जाता है। इन पन्द्रह में से भी पहली तीन-सुषम्ना इड़ा व पिंगला का विशेष महत्त्व है।
योग विद्या तथा कुण्डलिनी जागरण के सम्बन्ध में भी यही तीन नाड़ियां विशेष महत्त्व की हैं। इन्हीं तीन नाड़ियों के लिए ‘त्रिवेणी’ शब्द का प्रयोग ग्रन्थों में हुआ है। मूलाधार से अलग होकर चलती ये तीनों नाड़ियां आज्ञा चक्र में मिलती हैं।
अत: मूलाधार को ‘मुक्त त्रिवेणी’ और आज्ञाचक्र को ‘युक्तत्रिवेणी’ कहा गया है। जैसा कि चक्र प्रकरण में बता आए हैं, ‘संगम’, ‘तीर्थराज’, ‘त्रिवेणी’ आदि शब्दों का मर्म वास्तव में क्या है। इसी ‘युक्तत्रिवेणी’ (आज्ञाचक्र ) को ‘त्रिकूट’ भी कहते हैं।
कुछ विद्वान इसी को ‘चित्रकूट’ भी कहते हैं जहां राम सीता सहित वास करते हैं। यानि ब्रह्म और माया या प्रकृति व पुरुष साथ-साथ रहते हैं। बहरहाल…उपर्युक्त तथ्यों को इन तीनों नाड़ियों का महत्त्व सिद्ध करने के लिए पुनः दोहराया गया है।
इन तीन प्रमुख नाड़ियों में भी सुषुम्ना अति अधिक महत्त्व वाली है, क्योंकि कुण्डलिनी शक्ति जागृत होकर इसी नाड़ी में गति करती है। यह नाड़ी अति सूक्ष्म नली के समान गुदा के निकट से मेरुदण्ड से होती हुई ऊपर सहस्रार तक चली गई है।
इसके प्रारम्भ स्थान से ही इसकी बाएं ओर से इड़ा तथा दाईं ओर से पिंगला नाड़ी भी ऊपर गई है किन्तु ये दोनों नाड़ियां नथुनों पर आकर समाप्त हो जाती हैं।
(स्वर विज्ञान की दृष्टि से ये दोनों नाड़ियां महत्त्वपूर्ण हैं। प्राणायाम प्रकरण में स्वर विज्ञान’ की चर्चा करेंगे)। किन्तु सुषम्ना ब्रह्मरन्ध्र तक जाती है। ये तीनों नाड़ियां आज्ञाचक्र पर मिलती हैं, अतः आज्ञाचक्र को ‘तीसरा नेत्र’ भी कहा गया है। सुषुम्ना नाड़ी स्वयं में एक अति सूक्ष्म नली के समान है। इस नली (सुषुम्ना) के भीतर एक और अत्यंत सूक्ष्म नली के समान नाड़ी है जो ‘वज्र नाड़ी’ कही गई है।
‘वज्र’ नाड़ी में भी एक और नाड़ी जो ‘वज्रनाड़ी’ से भी सूक्ष्मतर है, गुजरती है जो ‘चित्रणी’ नाड़ी के नाम से जानी जाती है। ‘चित्रणी’ नाड़ी के भीतर से भी मकड़ी के जाले से भी सूक्ष्म ‘ब्रह्मनाड़ी’ गुजरती है। यही कुण्डलिनी शक्ति का वास्तविक मार्ग है। इन अति सूक्ष्म माड़ियों का ज्ञान योगियों को ही सम्भव है। आधुनिक विज्ञान इस विषय में पंगु व दीन है।
ये नाड़ियां सत्त्व प्रधान, प्रकाशमय व अद्भुत शक्तियों वाली हैं तथा सूक्ष्म शरीर व सूक्ष्म प्राण का स्थान है। . PRIL CID इड़ा, पिंगला एवं सुषुम्ना नाड़ियों की स्थिति ये सभी नाड़ियां मेरुदण्ड से सम्बन्धित हैं।
जिन विशेष स्थानों पर अन्य नाड़ियां इनसे मिलती हैं वे ‘जंक्शन’ ही चक्र कहे जाते हैं जो कि शरीरस्थ ‘पॉवर स्टेशन’ हैं, जैसा कि पहले बता आए हैं क्योंकि सबका सम्बन्ध मेरुदण्ड से है और सुषुम्ना नाड़ी मेरुदंड के भीतर से गुजरती है। सुषुम्ना के भीतर से वज्र, वज्र के भीतर से चित्रणी और चित्रणी के भीतर से ब्रह्मनाड़ी गुज़रती है।
यह ब्रह्मनाड़ी कुण्डलिनी शक्ति के प्रवाह का मार्ग है इस तथ्य से पाठक सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि कुण्डलिनी के जागरण व संचालन में मेरुदण्ड का सीधा रखना कितना अधिक आवश्यक है।
सीधे मेरुदण्ड में ही इन समस्त नाड़ियों के सीधे व तने रहने से कुण्डलिनी शक्ति का प्रवाह सरलता, सुगमता व सहजता से निरावरोध हो सकता है। मेरुदण्ड का झुके रहना प्रवाह मार्ग की सरलता में अवरोधक सिद्ध होता है। पाठक जानते हैं कि दो बिन्दुओं को मिलाने वाली सबसे कम दूरी सरल रेखा होती है।
अत: मेरुदण्ड सीधा रखकर विधिवत् आसन पर बैठने से कुण्डलिनी अपेक्षाकृत सरलता से ही नहीं, बल्कि तीव्रता और शीघ्रता से अपनी यात्रा कर पाती है। इसके अलावा मूलबन्ध आदिबन्धों का लगा होना भी इस काल में आवश्यक होता है (इस विषय में हम कुण्डलिनी जागरण काल में रखी जाने वाली सावधानियों के अर्न्तगत आगे चर्चा करेंगे)
अन्यथा बहुत-सी हानियां सम्भावित होती हैं। अत: जैसा कि कुछ अल्पज्ञों का मत है कि जैसे मर्जी, जब मर्जी, जहां मर्जी बैठकर, लेटकर, खड़े होकर, अधलेटे होकर ध्यान करें और कुण्डलिनी को जागृत करें- यह ‘सहज योग’ है, यह सरासर भ्रामक, मिथ्या व अज्ञानपूर्ण है। अनुशासन, विधान तथा नियमों का बंधन न रहने से यह भले ही औसत बुद्धि वाले लोगों को सरल, सहज व सुखद मालूम पड़े किन्तु कल्याणकारक व सफलदायक नहीं हो सकता, यह निश्चित है। प्रबुद्ध पाठक समझ सकते हैं कि मालूम पड़ने और वास्तव में होने में बहुत अंतर होता है।
जिस समय श्मशान में लकड़ियां या धर्मकांटे पर ट्रकों में लदा माल तोला जाता है, तब एक-दो किलो इधर-उधर हो जाना कोई मायने नहीं रखता। किन्तु जब पंसारी की दुकान पर चीनी, दाल, चावल आदि तोला जाता है तब एक-दो किलो का अंतर बहुत मायने रखता है। अलबत्ता 5-10 ग्राम का अंतर तब कोई मायने नहीं रखता। लेकिन जब सुनार के पास सोना या जवाहरात तुलवाया जाता है, तब 5-10 ग्राम का अन्तर बहुत मायने रखता है। उस समय तो माशे, तोले, रत्ती का भी अन्तर मायने रखता है।
इसलिए उनकी तराजू बिल्कुल ‘एक्यूरेट’ व शीशे के बॉक्स में रहती है, ताकि हवा से भी ज़रा-सी न हिल जाए। दाल सब्जी बनाते समय, बर्तन में डाला गया पानी दो चार चम्मच कम ज्यादा हो जाए तो अन्तर नहीं पड़ता, किन्तु दवाई बनाते समय पानी उचित अनुपात से कम ज्यादा हो तो दिक्कत हो सकती है। इसके विपरीत प्रयोगशाला में परीक्षण के समय किसी रसायन या विलयन में कोई खतरनाक, घातक या अतिसंवेदनशील अम्ल मिलाते समय नियत अनुपात से बूंद भर भी इधर-उधर हो जाना किसी अप्रिय घटना को जन्म दे सकता है।
इसी प्रकार अन्य बहुत से उदाहरण दिए जा सकते हैं जिनसे यह तथ्य साफ-साफ समझा जा सके कि जितनी माईन्यूट (सूक्ष्म) कैलकुलेशन (गणना) में हम जाएंगे, उतनी ही हमें एक्यूरेसी (प्रतिपन्नता)की आवश्यकता होती है। जैसे मर्जी, जब मर्जी, जहां मर्जी, जितना मर्जी का सिद्धांत वहां लागू नहीं हो सकता क्योंकि वह न सिर्फ हमें सही परिणाम पर नहीं पहुंचने देगा बल्कि हमारे व औरों के लिए घातक भी सिद्ध हो सकता है। रस्सी को लापरवाही से छुआ जा सकता है, बिजली के तार को नहीं और नंगे बिजली के तार को (जिस पर रबर का सुरक्षा खोल न चढ़ा हुआ हो) छूने के लिए तो और भी सावधानी दरकार होती है।
अतः सूक्ष्म किन्तु शक्तिशाली व चमत्कारी प्रभाव वाली उपलब्धियों को पाने के लिए वैसी ही सधी हुई, सही दिशा में, नियमपूर्वक, निरंतर मेहनत की ज़रूरत होती है। बिना निरंतर अभ्यास के, बिना सावधानी रखे, बिना नियमों का बंधन स्वीकार किए हम सुरक्षित रूप से साईकिल तक चलाना नहीं सीख सकते, कुण्डलिनी शक्ति चालन की बात तो बहुत दूर की बात है। जब ऊपर चढ़ना होता है, जब पतली रस्सी पर चलना होता है, तब आंखें खोलकर, पूरी सावधानी बरत कर और एक-एक कदम फूंक-फूंक कर रखना होता है।
अभ्यास द्वारा दक्षता प्राप्त हो जाने के बाद फिर भले ही आंखें बंद भी रखें तो अन्तर नहीं पड़ता। हां, अगर नीचे गिरना चाहें और छत की मुंडेर ऊंची न हो, फिर भले ही आंखें बंद कर, जब मर्जी, जहां मर्जी, जैसे मर्जी व जितना मर्जी चलें बड़ी सहजता से नीचे आ गिरेंगे। अत: योग के नाम पर ‘सहजता’ का दुमछल्ला लगाने वाले ठगों से तो पाठकों को विशेष रूप से सावधान रहना चाहिए।
यद्यपि हम इस चर्चा में मूल विषय से भटक रहे हैं, तथापि पाठकों के मार्गदर्शन के लिए यह ज़रूरी समझ रहा हूं ताकि पाठक भ्रमित न हों, ठगें न जाएं और अन्त में असफलता हाथ आने पर योग विद्या को ही अनास्था की दृष्टि से न देखने लगें। गुरु बनने की योग्यता वाला योगी कभी दुकान खोलकर नहीं बैठता। जो दुकान खोलकर बैठा है वह तो व्यापारी है।
वह भला ज्ञान को, योग को क्या जाने? जो सामूहिक रूप से आए हुए दर्शनार्थियों पर एक साथ कुण्डलिनी जागरण कराने का सब्जबाग दिखाते हैं, जो सामूहिक ‘शक्तिपात की बात करते हैं, उनके बारे में संदेह होता है कि वे कुण्डलिनी जागरण या शक्तिपात का अर्थ भी समझते हैं या नहीं। कुण्डलिनी जागरण न हुआ, गोया मूंगफली बांटना हो गया। उससे भी अधिक अफसोस उन दर्शनार्थियों की बुद्धि व आस्था पर होता है, जो ऐसे धर्मगुरुओं के चक्कर में फंसकर वहां पहुंच जाते हैं, और उन लम्पटों के पैरों में नाक रगड़ना अपना सौभाग्य मानते हैं।
इसका एकमात्र कारण अज्ञान है। अत: सावधान । । मंजिल पे पहुंचना है तो मंजिल शनास बन। वरना ये रहनुमा तुझे दरदर फिराएंगे।