Kali Sadhana काली महाविद्या साधना मंत्र प्रयोग
सहित Ph. 85280 57364
Kali Sadhana काली महाविद्या साधना मंत्र प्रयोग सहित Ph. 85280 57364 इस पोस्ट में माँ काली साधना के बारे में चर्चा विस्तार सहित की जाएगी माँ काली साधना इस जीवन में क्यों जरूरी है इस विषय पर विस्तार सहित चर्चा करगे आप इस पोस्ट को पूरा पढ़े
महाविद्या काली बिजली की तरह कड़क कर वज्र की तरह गिरती है जो शत्रुओं जीवन में शत्रुओं का एक-एक करके रोम. विनाश करने का अर्थ है अपनी जीवनशक्ति का ही विनाश और शत्रु तो इस जीवन में एक नहीं अनेक हैं तनाव, आर्थिक अभाव. गृहकलह पीड़ा क्या ये सब मी शत्रु नहीं है. जीवन के सहज आनंद में? इनको तो समाप्त करने की एक मात्र साधना सर्वसम्मति से शास्त्रों में स्वीकृत है।
साधना जगत के किसी भी रहस्य की चर्चा केवल व केवल रश्मिनयों के आधार पर की हैं और यह विज्ञान या वहम तनाव, आर्थिक अभाव, गृहक शत्रु नहीं है, जीव साधना सामा जगात के किसी भी रहस्य की चर्चा केवल द केवल रश्मियों के आधार पर की व समझी जा सकती है। रश्मियों का संघटन विघटन ही साधना में सफलता-असफलत बन कर हमारे समझ आता है, और संघक किसी भी स्तर पर खड़ा हो, यह घटना अवश्यम्भावी होती है यह बात अलग है, कि साधक साधना के किस चरण अथवा दृष्टि के विकास की किस अवस्था में इसका सात् कर पाता है। इसका यदि सरल सा एक भौतिक उदाहरण देना हो तो सूर्य ग्रह से दिया जा सकता है।
सूर्य हमारे समक्ष इस धरा पर नहीं उत्तर आता किंतु उसकी रश्मनयों के माध्यम से हम उसका नित्य ही साक्षात करते रहते हैं, उसे अपनी देह पर अनुभव करते रहते हैं। साधक भी सचना के विकसित चरणों में किसी भी देवी अथवा देवता का ऐसा अनुभव अपनी अन्तर्देह पर करने में सक्षम हो जाता है। इसी अनुभव से चित्त में जो धारणा बनती है वही साधना के क्षेत्र में बिम्ब कही जाती है, जो वास्तविक होती भी है और नहीं भी वास्तविक इस कारण होती है, क्योंकि हमने सधना के माध्यम से ऐसा कुछ अनुभूत किया होता है और वास्तविक इस कारण नहीं भी हो सकती है, क्योंकि समुचित रूप से विश्लेषण करने की क्षमता तब तक पता नहीं विकसित हुई हो, अथवा नहीं साधना, थ्योरी आफ रेजेज (रश्मि विज्ञान) नहीं है, किंतु इसी आधार पर किसी सीमा तक अन्तश्चेतना को विकसित इनको तो समाप्त क सर्वसम्मति से शा अपनी जीवनशक्ति का ही विनाश में एक नहीं अनेक हैं जह, पीड़ा क्या ये सब मी रोग. कर धारणा व विवेचनाएं की जा सकती हैं और यही कार्य तो विज्ञान या सइस भी कर रहा है।
ध्वनि का कोई स्वरूप नहीं होता, किंतु विज्ञान एक तरंग के रूप में उसकी सफलतापूर्वक व्याख्या करता है। यही व्याख्या किसी भी मुहूर्त के विषय में की जा रुकतों हैं। चैतन्यता के कुछ विशेष क्षण होते हैं, देवताओं की प्रसन्नता व वर प्रदान के कुछ दुर्लभ क्षण होते हैं, प्रकृति जब स्वयं अणु- अणु मैं अपनी उदारता लुटाने को तत्पर हो जाती है, किसी विशेष कार्य को सम्पन्न कर लेने का मूक संकेत देने लग जाती है, वही मुहूर्त होता है।
साइंस के आधार पर इसको व्याख्या नहीं की जा सकती और साइंस तो स्वयं आज कई क्षेत्रों में अनुत्तरित रह गई है। मानव मस्तिष्क में कितने तन्तु होते हैं अथवा मानव मस्तिष्क कैसे कार्य करता है, जैसे अनेक प्रश्न आज भी उसके लिए पहेली ही है। यह ठीक है, के विज्ञान ने क्लोन (प्रतिरूप) बनाने में सफलता प्राप्त कर ली हैं, किंतु यदि वह सृजन की क्षमता से युक्त हो गई। है, तो क्यों नहीं आज तक कैंसर जैसे प्राचीन रोग का समाधान मिला ?
यह विज्ञान की आलोचना नहीं हैं बस यह कहने का प्रयास है कि उसकी भी एक सीमा है। हो सकता है भविष्य में कैंसर का, एड्स का कोई प्रभावशाली उपाय या समाधान मिल और फिर क्या यह संभव नहीं है, कि कभी साइस वा विज्ञान भी भारतीय ज्ञान के इन विज्ञान पक्षों का कोई रहस्य तंत्र-यंत्र विज्ञान जार उन के सहज आनंद में? करने की एक मात्र साधना स्त्रों में स्वीकृत है विवेचित कर दे हो सकता है सब कोई शोध ‘द थोरो इन्पेक्ट ऑफ नेचर ऑन द इनर कॉन्शस ऑफ ग्रेट इंडियन ऋषीज जैसे भारी भरकम नाम से सामने आए और शायद तब भारतवासियों को भी गर्व हो सके कि जो आज हजारों वर्ष पूर्व उन ऋषियों ने कहा, जिनका हम यद-कदा बस विवाह, मुंडन पर सारण कर लेते हैं, ये भी कितने इंटिफिक माइड के थे।
भाग कर भी प्रभाव होता है, विशेष कर उस | देश में जो देश सौ वर्षो तक गुलाम रहा हो वहां तो होगा ही। भाषा का मी एक कुचक्र होता है और ऐसे कुचक्रों का तो केवल युग पुरुष ही तोड़ पाते हैं ‘गुरु गोरखनाथ’ या भगवान बुद्ध की तरह। मुहूर्त की आज के समय में समुचित अथवा ‘साइंटिफिक’ व्याख्या संभाव्य हो अथवा न हो, किंतु एक बात तो स्पष्ट है ही, कि काल के जो क्षण व्यतीत हो जाते हैं, दे फिर लौट कर नहीं अते और वहीं किसी मुहूर्त का उपयोग करने का तात्पर्य भी होता है। साधक को किसी साइटिफिक व्याख्या की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि वह स्वयं अन्तश्चेतना से मुहूर्त के प्रभाव का साक्षी अन्तर्मन से बन जाता है। 1
स्वयं अनुभव करने लग जाता है, कि काल के कुछ ऐसे होते हैं जब उसे साधना में सफलता अल्प प्रयास से मिल जाती है। पाश्चात्य सभ्यता में जिसे मूड कहते हैं या भारतीय सभ्यता में जिसे चैतन्य क्षण कहते है वे सभी क्षण वास्तव में मुहूर्त के ही होते हैं। वस्तुत अंग्रेजी के शब्द ‘मोड’ (ढंग, | प्रकार) का ही परिवर्तित रूप ‘मूड’ कहलाता है, जो अपनी अन्तर्भावना में मुहूर्त के ही समीपस्थ सिद्ध होता है। इसके उपरांत साधक को भी मुहूर्त के विषय में प्रायः | एक प्रकार की अस्पष्टता ही होती है। काल का जो क्षण होती तो इस वर्ष ही निकल गया, वह कैसे निकल गया नहीं हर वर्ष पडती हैं जैसी अनेक हाते प्रत्येक साधक के मन में उमड़ती घुमड़ती रहती हैं, भले ही वह मदद कहे या न कहे।
किंतु साधक को यह ध्यान रखना चाहिए, कि यद्यपि यह सत्य है, कि होली अथवा कोई भी पर्व प्रत्येक वर्ष घाटत होता है, किंतु प्रत्येक वर्ष नक्षत्र, योग एवं चंद्रमा की स्थिति के कारण मुहूतों में भी आन्तरिक विशेषता प्रबंधित अथवा न्यून होती रहती है। होली की रात्रि को भी अपनी एक पृथक चैतन्यता होती है जो दीपावली में नही हो सकती और दीपावली की होली में नहीं।
होली का पर्व या होलिका दहन की रात्रि वास्तव में उतना ही अधिक तीव्र प्रभाव रखती है जितना अधिक प्रभाव सूर्य ग्रहण के क्षण रखते हैं। यह व्याख्या से अधिक अनुभव का विषय है। जिस प्रकार सूर्य ग्रहण के क्षण अपने आप में शात्रोक्त साधनाओं के विलक्षण होते हैं, ठीक उसी प्रकार होली की रात्रि भी तांत्रिक साधकों के मध्य केवल व केवल प्रबल महाविद्या प्रयोगों के लिए ही आरक्षित सी रहती है।
प्रत्येक उच्चकोटि का तांत्रिक परे वर्ष भर प्रतीक्षा करता रहता है, कि कब होली का पर्व पर और यह अपनी साधना को पूर्णता दे सके। शेष वर्ष तो वह एक प्रकार से इसकी पृष्ठभूमि ही बनाता रहता है। यह उचित भी है क्योंकि सूर्य ग्रहण की ही भांति होलिका दहन की रात्रि में सम्पन्न की जाने वाली प्रत्येक माला अपने आप में सौ मालाओं का प्रभाव रखती है। साचक स्वयं अनुमान कर सकते हैं कि जिन उच्चकोटि की साधनाओं में, जहां पांच लाख अथवा दस लाख न्त्र जप पांच हजार अथवा दस हजार माला मंत्र जप से सम्पूर्ण करने पहते हैं।
वहीं होली की रात्रि में इन्हें मात्र इक्यावन अथवा एक सौ एक माला मंत्र जप से सम्पूर्ण किया जा सकता है। मुहूतों का यही तो वैशिष्ट्य होता है, कि ऐसे अवसर पर कम परिश्रम से जीवन में बहुत कुछ अर्जित किया जा सकता है। होलिका दहन की रात्रि में साधक अपनी रुचि व क्षमता के अनुकूल कोई भी तांत्रिक साधना सन्न कर सकता है, किंतु जह जीवन में कुछ विशिष्ट करने को कामना हो और इससे भी अधिक जीवन में एक ऐसा आधार बनाने की भावना हो, जिस आधार पर खड़ होकर जीवन में पौरुष प्रखरता तेज का समावेश हो सके, वहा किसी एक महाविद्या साधना का आश्रय लेना पड़ जाता है। महाकाली यह मात्र एक महाविद्या साधना नहीं स्वयं अपने आप में होली का उत्सव ही है, जिसको सम्पन्न कर साधक, अपने दुभाग्य को योगाग्नि में भस्म कर फिर सुख-सौभाग्य के अबीर गुलाल मैं नहा उठता है। और भीग जाता है।
महाकाली का स्वरूता वा है, क्रोधोन्मत्त है, संहारकारी है, सामान्य व्यक्ति के लिए भयप्रद है किंतु है तो अन्ततोगत्वा मां का ही स्वरूप… जो कुछ सामान्य व्यक्ति के लिए भयप्रद है वहीं साधक के लिए उसकी ‘मां’ के आयुध है उसके जीवन के वैषम्य को समाप्त करने में सहायक… आनंद के टेसू की गुनगुनी फुहार मे महाविद्या उनमें से न केवल सर्वश्रेष्ठ चन् सर्वधन भी है। शक्ति साधनाओं में भी प्रदेश का एक क्रम होता है जिस प्रकार कोई बालक सीधे ही दसवीं कक्षा में प्रवेश नहीं ले सकता, ठीक उसी प्रकार शक्ति साधनाओं में प्रवेश के आतुर साधक को भी सर्वप्रथम महाकाल महाविद्या की साधना सम्पन्न करती पड़ती है।
दूसरी ओर यह साधना के उच्चतर अयमों में प्रविष्ट हो गए साधकों की भी इष्ट साधना होती है क्योंकि साधना केवल गणित नहीं होती। यह सत्य है, कि साधनाओं का एक क्रम होता है, किंतु क्या साधना करना उसी प्रकार है, जिस प्रकार हम दैनिक जीवन में स्वार्थवश सम्बन्ध बनाते और तोड़ते रहते हैं? यदि एक अतरिकता ही नहीं विकसित की तो साधना के क्षेत्र में प्रविष्ट होने का अर्थ ही क्या इसी आंतरिकत के वशीभूत होकर अनेक साधकों के जीवन की यह (महाकाली) न केवल आधारभूत सधना वरन सर्वस्व हो गई।
श्री रामकृष्ण परमहंस ने अपने जीवन में महाकाली साधना के अतिरिक्त अन्य किसी लधना को प्रश्रय ही नहीं दिया और केवल इसी आधार पर एवंथा निरक्षर होते हुए भी उन्होंने स्वामी विवेकानंद जैसे प्रखर व्यक्तित्व को शिष्य रूप में प्रस्तुत करने में सफलता भी पाई। केवल महाकालो ही नहीं अपितु प्रत्येक महाविद्या अपने अम में सम्पूर्ण है, लेकिन किसी एक विशेष गुण का प्रतिनिधित्व करती हुई और प्रारम्भिक साधक को उस महाविद्या विशेष के प्राथमिक (अर्थात् विशेष गुण की साधना करना हो उचित रहता है। कोई भी महाविद्या जीवन की आधारभूत साधना तो विकास के किसी क्रम में जाकर बन पाती है।
यह एक साधकोचित मर्यादा भी है और साधना जगत की वास्तविकता भी। जिस प्रकार महाकाली शक्ति की प्रथम धन्य है, ठीक इसी प्रकार पौरुष प्रखरता और तेज भी जीवन की प्राथमिक आवश्यकताएं हैं। जीवन के क्षेत्र में भी और साधना के क्षेत्र में भी। पीता के अभाव में कुछ भी सुव्यवस्थित नहीं हो सकता और पौरत से तात्पय मर्दानगी से नहीं वरन जीवन की उस दृढता से है जो प्रत्येक स्त्री था पुरुष में होनी ही चाहिए। जीवन घिसट-घिसट कर चलने के लिए प्रभु ने हमको नहीं दिया है। जीवन इतना सस्ता नहीं हो सकता है, कि उसे विविध शत्रुओं से संघर्ष करने में व्यतीत कर दिया जाए।
केवल बाह्य शत्रु अथवा किती स्त्री-पुरुष के रूप में विद्यमान शत्रु ही नहीं, शत्रु तो आंतरिक भी होते हैं। आंतरिक शत्रुओं से लड़कर ही फिर हम किसी बाह्य शत्रु से चुनौती ले सकते हैं। यदि आतंरिक बल नहीं है, तो न किसी शत्रु से शारीरिक अथवा मानसिक युद्ध ठाना जा सकता है और न उसमें सफलता पाई जा सकती है। व्यापार करते हैं तो किसी प्रतिद्वन्द्वी द्वारा प्रताड़ित किया जाना, नौकरी करते हैं तो अधकारी द्वारा अपमानित किया जान समय से दोति न मिलना, घर में कलह होते हैं रहना इत्यादि सद शत्रु ही है।
इन सभी शत्रुओं से पृथक-पृथक लड़ने में व्यक्ति की जीवनी शक्ति इस प्रकार चुक जाती है, कि फिर न तो उसके स साधना करने की शक्ति शेष रह जाती है और न कभी-कभी साधना के प्रति विश्वास। ऐसी स्थिति में बुद्धिमत्ता इसी में हैं, कि वह उपाय सोचा जाए और सोच कर प्रयोग में लाया जाए जो सभी शत्रुओं का एक बार में ही संहार कर दे। महाकाली साधना इसी का एक प्रयास है शत्रु संहार की दो मुख महाविद्या सघनार है प्रथम महाकाल और द्वितीय बगलामुखी किंतु दोनों ने एक सूक्ष्म भेद है। बगलामुखी साधना जहां किसी प्रत्यक्ष शत्रु के विरुद्ध प्रभावशाली होती हैं. वहीं महाकाली प्रत्यक्ष शत्रु के साथ-साथ जीवन के अन्यान्य पक्षों में छिपे शत्रुओं के प्रति भी सक्रिय होती हैं। इसके अतिरिक्त बगलामुखी महाविद्या की साधना विधि अत्यंत दुष्कर है बगलामुखी महाविद्या को सिद्ध करने के लिए आवश्यक है कि साधक कठोर अन्य नियम संरने का पलन करने के साथ-साथ निरंतर गुरु साहचर्य में रहे। जो श्रेष्ठ साधक होते हैं, वे ऐसा करते भी हैं. किंतु जहां केवल जीवन को सवारते हुए एक निश्चित क्रम शालीनता के साथ शक्ति साधन के क्षेत्र में प्रविष्ट होने की शत आती है, फिर वहां महाकाली का महत्व सर्वोपरि स्वयं सिद्ध हैं।
साथ ही इस बात की तो चर्चा पहले भी की है, कि महाकाली महाविद्या ही महाविद्या साधनाओं का प्रवेश द्वार है। बगलामुखी एक पहुंचना है तब भी महाकाली साधना तो सम्पन्न करनी ही पड़ेगी। इस वर्ष होली का मुहूर्त इस साधना के लिए सर्वाधिक उपयुक्त अवसर है। यों तो साधक इस साधना को जीवन में विशेष संकट आने पर अथवा मन में साधना के प्रति एक ललक रहने पर किसी भी मह के कृष्ण पक्ष की अष्टमों को सम्पन्न कर सकता है, किंतु होली पर्व की तो चैतन्यता है विलक्षण होती है फिर इस वर्ष की होली का पर्व तो विशेष योगों से गठित हुआ है।
महा काली साधना विधि
बाह्य वातावरण शांत होने से साधक चैतन्यता को पूरी तरह से आत्मसात करने में सफल हो पाता है। महाकाली को महाविद्या के रूप में सिद्ध करने अथवा जीवन की विविध समस्याओं को | सुलझाने के आतुर शिष्यों को चाहिए कि वे उपर्युक्त काल में लाल वस्त्र धारण कर लाल रंग के ही आसन पर दक्षिण की ओर |
मुख करके बैठें और अपने सामने लकड़ी के किसी बाजोट पर लाल वस्त्र बिछाकर उस पर ताम्रपत्र पर अंकित ‘महाकाली यंत्र स्थापित करें। अपने दाहिने हाथ की ओर (यंत्र के समीप) ‘भैरव गुटिका’ नध्य में तेजस गुटिका तथा बांयी ओर ‘क्लीं गुटिका का स्थापन कर सभी का पूजन जल कुंकुंम अक्षत, पुष्प धूप से करें, जिससे जीवन में व शरीर में बल, ओज च पौष का समन्वय हो सके। इसके पश्चात तेल का एक दीपक प्रज्ज्वलित कर दें, जो सम्पूर्ण साधनाकाल में अखंड रूप से जलता रहे। अब महाकाली यंत्र का भी संक्षिप्त पूजन करें और यंत्र पर दस कुंकुंम की बिंदियां ब्ली मंत्र के साथ लगाएं तथा निम्न | प्रकार से
काली ध्यान
उच्चरित करें – खड्गं चक्रगदेषुचापपरिधान्दूल भुशुण्डी शिर: शंख सदधती करैस्त्रिनयनां सर्वांगभूषावृताम् । नीलाश्मतिमास्यपाद दशकां सेवे महाकालिका यामस्तत्स्वपिते हरौ कमलजी हन्तुं मधु कैटभम् ।।
ध्यान उच्चरित कर भगवती महाकाली से अपने जीवन के सभी दुख दैन्य समाप्त करने की याचना कर उन्हें पूर्ण रूप से अपने प्राणों में समाहित करने की भावना के साथ महाविद्याल से निम्न मंत्र की इक्कीस माला मंत्र जप निष्क्रम्प भाव से करें मंत्र
maha kali sadhna mantra महा काली साधना मंत्र
॥ ॐ क्रीं क्लीं महाकालि हुं हुं फट् OM KREEM KLEEM MAHAAKAALI HUM HUM PHAT
मंत्र जप काल में हुई किसी भी अनुभूति से न हो विचलित हों, न उन्हें सार्वजनिक करें। साधना के दूसरे या तीसरे दिन सभी सामग्रियां लाल वस्त्र में लपेट कर किसी नदी मंदिर अथवा स्वच्छ जलाशय में विसर्जित कर दें। भगवती महाकाली को यह दुर्लभ साधना वास्तव में महाकाली को प्राणों में समाहित करने की ही साधना है यह सत्य है, कि प्रत्येक दैवी शक्ति बह्य रूप से भी शक का हित साधन करने में साधना के उपरांत तत्पर रहती है, किंतु उसे शक्ति को अपने शरीर में समाहित करना न केवल साधक के लिए अधिक हितकारी होता है वरन उस दैवीय शक्ति के लिए भी अहलादकारी होता है। यही इस सघना की मूल भावना है। यहीं किसी भी साधना की मूल भावना होती है।