तंत्र शब्द अर्थ और परिभाषा tantra shabd ka arth aur paribhasha

तंत्र शब्द अर्थ और परिभाषा tantra shabd ka arth aur paribhasha
तंत्र शब्द अर्थ और परिभाषा tantra shabd ka arth aur paribhasha

तंत्र शब्द अर्थ और परिभाषा tantra shabd ka arth aur paribhaasha प्रत्येक मनुष्य अपने आपको सब ओर से सुखी और सम्पन्न देखना चाहता है । सुख की प्राप्ति के अनेक साधन हैं , उनमें तन्त्र साधना भी एक है । इस साधना के द्वारा बड़ी से बड़ी और छोटी – से – छोटी , जैसी भी समस्या हो उसका समाधान सहज प्राप्त किया जा सकता है ।

भारतीय जीवन में आस्तिकता पूर्णरूप से घुली – मिली है और इसके फलस्वरूप प्रत्येक भारतीय अपने धर्म और सम्प्रदाय के अनुरूप तान्त्रिक तत्त्वों से सम्बन्ध जोड़कर उससे लाभान्वित होता रहता है ।

‘ तन्त्र – शक्ति ‘ में प्रकृति से प्राप्त वस्तुओं के सहयोग से उनमें सोई हुई दैवी- शक्ति को जगाकर अपने अनुकूल बनाने और उनके द्वारा अपने इच्छित कार्यों को सफल बनाने की विधि बताई गई है । ‘ उचित समय , उचित देश एवं उचित पद्धति से किए गए कार्य ही वस्तुतः सफल होते हैं ‘ , इस बात को ध्यान में रखकर इस पुस्तक में शास्त्रीय विधियों को बहुत ही सरल भाषा में समझाया गया है । इसके अध्ययन से तन्त्र सम्बन्धी भ्रम का सहज निवारण हो सकेगा ।

हमारा लक्ष्य रहा है कि पाठकों को ‘ गागर में सागर ‘ के रूप में अनुभूत लेख  प्रस्तुत करना । इससे पूर्व प्रकाशित ‘ मन्त्र – शक्ति ‘ लेख  का सर्वत्र आदर हुआ है । इसी दृष्टि से यह द्वितीय वेबसाइट  ‘ तन्त्र – शक्ति ‘ आपके हाथों में आ रही है । विश्वास है , जिज्ञासु पाठकों के लिए यह अवश्य ही उपयोगी सिद्ध होगी । 

तन्त्र : शब्दार्थ और परिभाषा

‘तन्त्र’ शब्द के अर्थ बहुत विस्तृत हैं, उनमें से सिद्धान्त, शासन- प्रबन्ध, व्यवहार, नियम, वेद की एक शाखा, शिव-शक्ति आदि की पूजा और अभिचार आदि का विधान करने वाला शास्त्र, आगम, कर्मकाण्ड-पद्धति और अनेक उद्देश्यों का पूरक उपाय अथवा युक्ति | 

प्रस्तुत विषय के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण हैं। वैसे यह शब्द ‘तन्’ और ‘त्र’ इन दो धातुओं से बना है, अतः ‘विस्तारपूर्वक तत्त्व को अपने अधीन करना’- यह अर्थ व्याकरण की दृष्टि से स्पष्ट होता है, जबकि ‘तत्’ पद से प्रकृति और परमात्मा तथा ‘त्र’ से स्वाधीन बनाने के भाव को

ध्यान में रखकर ‘तन्त्र’ का अर्थ – देवताओं के पूजा आदि उपकरणों से प्रकृति और परमेश्वर को अपने अनुकूल बनाना होता है। साथ ही परमेश्वर की उपासना के लिए जो उपयोगी साधन हैं, वे भी ‘तन्त्र’ ही कहलाते हैं। इन्हीं सब अर्थों को ध्यान में रखकर शास्त्रों में तन्त्र की परिभाषा दी गई है—

सर्वार्थान येन तन्यन्ते त्रायन्ते च भयाज्जनान्। इति तन्त्रस्य तन्त्रत्वं तन्त्रतत्त्वविदो विदुः॥

अर्थात् – जिसके द्वारा सभी मन्त्रार्थों-अनुष्ठानों का विस्तार- पूर्वक विचार ज्ञात हो तथा जिसके अनुसार कर्म करने पर लोगों की भय से रक्षा हो, वही ‘तन्त्र’ है। तन्त्र-शास्त्र के मर्मज्ञों का यही कथन है।

तन्त्र का दूसरा नाम ‘आगम’ है। अतः तन्त्र और आगम एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। वैसे आगम के बारे में यह प्रसिद्ध है कि—

आगतं शिववक्त्रेभ्यो, गतं च गिरिजानने। मतं च वासुदेवस्य, तत आगम उच्यते ॥

तात्पर्य यह है कि जो शिवजी के मुखों से आया, और पार्वतीजी के मुख में पहुँचा तथा भगवान् विष्णु ने अनुमोदित किया, वही आगम है। इस प्रकार आगमों या तन्त्रों के प्रथम प्रवक्ता भगवान् शिव हैं तथा उसमें सम्मति देने वाले विष्णु हैं, जबकि पार्वतीजी 1 उसका श्रवण कर, जीवों पर कृपा करके उपदेश देने वाली हैं। अतः भोग और मोक्ष के उपायों को बताने वाला 2 उपदेश ‘आगम’ अथवा ‘तन्त्र’ कहलाता है, यह स्पष्ट है।