आत्म रूपान्तरण के बाद ही तंत्र Tantra की क्षमताओं का अवतरण हो पाता है और तभी हमें तांत्रिक सिद्धियों की झलक दिखाई पड़ने लगती है । ऐसी दिव्य अनुभूतियां साधक की बिलकुल निजी सम्पत्ति होती हैं । इनका लाभ आवश्यकता अनुसार वह दूसरों को करा तो सकता है, लेकिन यह दिव्य अनुभूतियां प्रदर्शन की वस्तु कदापि नहीं होती । इसी धरातल पर आकर साधक को अष्ट सिद्धियों का लाभ मिलने लगता है । यद्यपि इनके विषय में सामान्य चेतना के साथ सोच-विचार करना कपोल कल्पनाएं ही प्रतीत होता है । तंत्र Tantra साधना के रूप : तांत्रिक साधनाओं के मुख्यतः तीन रूप रहे हैं । इन्हीं के माध्यम से तांत्रिकों के विभिन्न सम्प्रदाय अपने अन्तिम लक्ष्य ‘परमतत्व’ की प्राप्ति तक पहुंचते रहे हैं । यद्यपि इन रूपों में समयान्तराल, स्थान विशेष आदि के कारण कई प्रकार के बदलाव और नवीनताएं भी आती रही हैं। इसलिये बंगाल, कामाख्या, बिहार, गोरखपुर, नेपाल आदि के तंत्र Tantra साधकों के क्रियाकर्म और उपासना पद्धतियां हिमालय में साधानारत तांत्रिकों से काफी भिन्न प्रतीत होती हैं। तांत्रिक साधना के जो तीन रूप रहे हैं, उनमें से तंत्र Tantra साधना का प्रथम रूप आद्यशक्ति को स्वयं में पूरी तरह से आत्मसात करने की प्रक्रिया पर आधारित रहा है।
साधना के इस रूप में तंत्र Tantra साधक क्षणिक भौतिक इच्छाओं के पीछे नहीं भागता, बल्कि सम्पूर्णता के साथ परमात्मा के शाश्वत सत्य को पाना चाहता है । उसका मुख्य ध्येय शाश्वत आनन्द की अनुभूति को प्राप्त करना होता है । तंत्र Tantra साधना का यही रूप सांसारिक बंधनों से मुक्त करते हुये साधक की आत्मा को दिव्य साक्षात्कार करवा देता है । तंत्र Tantra साधना मोक्ष, मुक्ति अथवा निर्वाण प्राप्ति का यही मार्ग है । इस मार्ग पर अग्रसर होते ही साधक की भौतिक आकांक्षाएं धीरे-धीरे समाप्त होती चली जाती हैं और उसका प्रवेश अभौतिक संसार में होने लगता है । तंत्र Tantra साधना के इस पथ से अन्ततः साधक परमात्मा के दिव्य रूप में समाहित होता चला जाता है ।