shiv tantra शिव तंत्र शास्त्र आधुनिक विज्ञान और तंत्र ph. 8528057364
shiv tantra शिव तंत्र शास्त्र आधुनिक विज्ञान और तंत्र ph. 8528057364 आधुनिक विज्ञान और तंत्र प्रत्येक बुद्धि-सम्पन्न व्यक्ति के मन में सदैव एक यह तर्क रहता है कि – “आज विज्ञान जितना विकसित हो गया है और हमारे जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है, उसी तरह तन्त्र से भी पूर्ति सम्भव है क्या ?”
अथवा “जब विज्ञान ने सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के उपकरण उपस्थित कर दिए हैं, फिर तन्त्र और उनकी साधनाओं से क्या लाभ है ?” इन दोनों प्रश्नों का समाधान हम इस प्रकार कर सकते हैं— “विज्ञान जिन साधनों से हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है, वे साधन क्रमशः एक-दूसरे के अधीन हैं, अर्थात् वे परापेक्षी हैं, उनका उप- योग स्वतन्त्र रूप से नहीं हो सकता, जबकि तन्त्र-साधना द्वारा स्वतन्त्र रूप से सिद्धि प्राप्त की जा सकती है।
विज्ञान की सिद्धि कुछ समय तक ही लाभप्रद होती है, किन्तु तन्त्र द्वारा प्राप्त सिद्धि चिर स्थायी हो सकती है। विज्ञान बाह्य रूप से सहयोगी बनता है, जबकि तन्त्र हमारे आन्तरिक मस्तिष्क को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करते हैं। इसलिए परतन्त्रता की अपेक्षा स्वतन्त्रता ही श्रेयस्कर है ।
वैसे विज्ञान के लक्ष्य भौतिक कार्यों की उपलब्धि तक ही सीमित हैं, जबकि तन्त्र का उद्देश्य इस लोक की सुख-सुविधाओं की पूर्ति के साथ-साथ जीव को शिवस्वरूप बनाना भी है। जीव और शिव की व्याख्या ‘कुलार्णव तन्त्र’ में इस प्रकार दी गई है—
घृणा लज्जा भयं शंका, जुगुप्सा चेति पञ्चमी । कुलं शीलं तथा जातिरष्टौ पाशाः प्रकीर्तिताः ॥ पाशबद्धो भवेज्जीवः पाशमुक्तः सदाशिवः ।
अर्थात् घृणा, लज्जा, भय, शंका, जुगुप्सा-निन्दा, कुल, शील और जाति ये आठ पाश कहे गए हैं, इनसे जो बंधा हुआ है, वह जीव है । इन्हीं पाशों से छुड़ाकर (तन्त्र जीव को) सदाशिव बनाते हैं। इस तरह दोनों के उद्देश्यों में भी पर्याप्त अन्तर है और विज्ञान से तन्त्रों के उद्देश्य महान् हैं।
तन्त्रों की इस स्वतन्त्र वैज्ञानिकता के कारण ही प्रकृति की चेतन- अचेतन सभी वस्तुओं में आकर्षण – विकर्षण उत्पन्न कर, अपने अधीन बनाने के लिए कुछ देवी तथ्यों का आकलन किया गया है।
जैसे विज्ञान एक ऊर्जा शक्ति से विभिन्न यन्त्रों के सहारे स्वेच्छानुसार रेल, तार, मोटर, बिजली आदि का प्रयोग करने के द्वार खोलता है, वैसे ही तन्त्र- विज्ञान परमाणु से महत्तत्त्व तक की सभी वस्तुओं को आध्यात्मिक एवं उपासना-प्रक्रिया द्वारा उन पर अपना आधिपत्य जमाने की ऊर्जा प्रदान करता है।
अनुपयोगी तथा अनिष्टकारी तत्त्वों पर नियन्त्रण रखने की शक्ति पैदा करता है तथा इन्हीं के माध्यम से अपने परम तथा चरम लक्ष्य की सिद्धि तक पहुँचाता है। मन्त्र जप एवं तान्त्रिक विधानों के बल पर मानव की चेतना ग्रंथियां इतनी जागृत हो जाती हैं कि उनके इशारे पर बड़ी से बड़ी शक्ति से सम्पन्न तत्त्व भी वशीभूत हो जाते हैं।
तान्त्रिका साधना निष्ठ होने पर वाणी, शरीर तथा मन इतने सशक्त बन जाते हैं कि उत्तम इच्छाओं की प्राप्ति तथा अनुत्तम भावनाओं का प्रतीकार सहज बन जाता है । भारत तन्त्रविद्या का आगार रहा है। प्राचीन काल में तन्त्र- विज्ञान पूर्ण विकास पर था, जिसके परिणाम स्वरूप ही ऋषि-मुनि, सन्त-साधु, यती-संन्यासी, उपासक आराधक अपना और जगत् का कल्याण करने के लिए असाध्य को साध्य बना लेते थे
। ‘मन्त्राधीनास्तु देवताः’ इस उक्ति के अनुसार देवताओं को अपने अनुकूल बनाकर छायापु रुष, ब्रह्मराक्षस योगिनी, यक्षिणी आदि को सिद्ध कर लेते थे और उनसे भूत-भविष्य का ज्ञान तथा अतर्कित- अकल्पित कार्यों की सिद्धि करवा लेते थे ।
पारद, रस, भस्म और धातु-सिद्धि के बल पर दान-पुण्य, जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति, बड़े-बड़े यज्ञ योगादि के लिए अपेक्षित सामग्री की प्राप्ति आदि सहज हो कर लेते थे और सदा अयाचक वृत्ति से जीवन बिताते थे ।
यह सत्य है कि सभी वस्तुओं के सब अधिकारी नहीं होते हैं और न सभी लोग सब तरह के विधानों के जानने के ही। साधना को गुप्त रखने का तन्त्रशास्त्रीय आदेश भी इसीलिए प्रसिद्ध है- और- गोपनीयं गोपनीयं गोपनीयं प्रयत्नतः । ‘Hold fast silence what is your own lest icy fingers be laid upon your lips to seal them forever.” ( प्रयत्नपूर्वक मौन रखिये ताकि आपके होठ सदा के लिये बन्द न हो जायँ ।)
अतः सारांश यह है कि ऐसी वस्तुओं को गुप्त रखने में ही सिद्धि है । तन्त्र योग में शरीर और ब्रह्माण्ड का जितना अद्भुत साम्य दिखाया गया है, वैसा अन्यत्र कहीं भी ब्रह्माण्डे’ (जैसा पिण्ड-शरीर में, वैसा ही दुर्लभ है। ‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्ड में) इस उक्ति को केवल पुस्तकों तक ही सीमित न रखकर प्रत्येक वस्तु को उसके गुणों के अनुसार पहचानकर उसका उचित तन्त्र द्वारा विनियोग करते हुए प्रत्यक्ष कर दिया है।
तन्त्र के प्रयोगों में भी एक अपूर्व वैज्ञानिकता है, जो प्रकृति से प्राप्त पञ्चभूतात्मक पृथ्वी, जल, तेज, अग्नि, वायु और आकाश- वस्तुओं के सहयोग से जैसे एक वैज्ञानिक रासायनिक प्रक्रिया के द्वारा नवीन वस्तु की उपलब्धि करता है वैसे ही-नई-नई सिद्धियों को प्राप्त करता है।
तन्त्रों ने प्रकृति के साथ बड़ा ही गहरा सम्बन्ध स्थापित कर रखा है। इसमें छोटे पौधों की जड़ें, पत्ते, शाखाएँ, पुष्प और फल सभी अभि- मन्त्रित उपयोग में लिए जाते हैं। मोर के पंख तान्त्रिक विधान में ‘पिच्छक’ बनाने में काम आते हैं तो माष के दाने कुछ प्रयोगों में अत्या- वश्यक होते हैं। सूर्य ग्रहण और चन्द्र ग्रहण में तान्त्रिक साधना का बड़ा ही महत्त्व है।
श्मशान, शून्यागार, कुछ वृक्षों की छाया, नदी-तट आदि इस साधना में विशेष महत्त्व रखते हैं। स्नान, गन्ध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, आरती और पुष्पांजलि आदि पूजा पद्धति की क्रियाएं तन्त्रों के द्वारा ही सर्वत्र व्याप्त हुई हैं । इस तरह तन्त्र विज्ञान और विज्ञान तन्त्र का परस्पर पूरक है, यह कहा जाए तो कोई अत्युक्ति नहीं है।