मंत्र तंत्र साधना रहस्य mantra tantra yantra rahsya ph.8528057364
मंत्र तंत्र साधना रहस्य mantra tantra yantra rahsya ph.8528057364 साधना की उपयोगिता अब हमारे मस्तिष्क में ये प्रश्न उठता है कि साधना की क्या उपयोगिताएं है? इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने के लिए साधना की अवधारणा पर ध्यान केन्द्रित करना होगा। वर्तमान समय में सर्व अशान्ति विध्यमान है। यह जगत् माया का क्रीडास्थल है।
जहाँ मनुष्य आँख मिचौली खेल रहा है। उसकी आंखों पर अन्धकार अर्थात् अज्ञानता की पट्टी बंधी हुई है। वह सारे संसार में विचरण करता है शान्ति व सुख की तलाश में दर-बदर की ठोकरें खाता है, मगर उसे कहीं शान्ति नहीं मिलती वह जितना सोचता है। उसके अनुसार कार्य करता है।
दुखों की जंजीरों में बंधता चला जाता है। उसे स्वतन्त्रता, संतोष कहीं नहीं मिलता। वस्तुतः वह अपनी इच्छाओं का गुलाम बना हुआ है। वह एक मृग की तरह इस मायावी संसार में अपनी प्यास बुझाने के लिए घूमता रहता है और जब वह थक हारकर बैठ जाता है तो उसे अपने भीतर की आवाज सुनाई देती है। हृदय गूंजने लगता है।
शास्त्र बताते हैं कि भगवान ही एकमात्र विशुद्ध आनन्द हैं। वास्तविक ज्ञान है,परम सत्य है, और सर्व प्रेम का स्रोत हैं, और जब वह इस बारे में सोचता है तो उसके आँखों पर बंधी अज्ञानता की पट्टी खुल जाती है. उसके जीवन में सत्य उतर जाता है। हृदय के अन्तर तल में भगवान के आनन्द की तरंगें उठने लगती हैं।
भगवान के चरणों का स्मरण साधना की पहली सीढ़ी है। दुनिया के पाखण्ड धोखे देने वाले हैं, परन्तु भगवान की प्राप्ति सच्ची महान प्राप्ति है। आज की दुनिया वैज्ञानिक युग में निवास करती हैं। प्रत्येक मनुष्य स्वार्थी होने के साथ इस जगमगाहट के पीछे डूबता जा रहा है।
जो लोग इस अड़चन में नहीं पड़ते वहीं साधक बने हुए हैं और भगवान की प्राप्ति में लगे हैं. लेकिन जो लोग संसार की इस विपत्ति से परेशान रहते हैं वह ईश्वरीय खोज में लग जाते हैं भगवान को प्राप्त करना उनका परम लक्ष्य बन जाता है और सुख, शान्ति, संतोष प्राप्ति की पहली क्रिया साधना है।
इस कारण इसकी उपयोगिता और अधिक बढ़ गई हैं। वास्तविक सुख क्या है? इसका एकमात्र उत्तर हैं-परमात्मा, संसार की समस्त इच्छाओं के शान्त हो जाने पर एक अनंत सुख की अनुभूति होती है उसे परमात्मा कहते हैं अतः परमात्मा को प्राप्त करना ही मनुष्य का एकमात्र उद्देश्य रहता है और इसी परमात्मा की प्राप्ति के लिए वह साधना करता है।
वर्तमान युग के विद्वान अपने आपको ज्ञाता कहते हैं और दैविक ज्ञान को मन्दबुद्धि का परिचायक बताते हैं, लेकिन वास्तव में वे अज्ञानी हैं।
क्योंकि सबसे बड़ी पराक्रम शक्ति वही ईश्वर है, क्योंकि ईश्वर के ही करुणा के कारण उन्हें 64 हजार योनियों में सबसे श्रेष्ठ मनुष्य योनि में जन्म मिला। ज्ञान साधना का विरोध ती नहीं है।
वह तो उसमें रहने वाले अज्ञान – मात्र का विरोधी है। अज्ञानता का नाश करके साधनाओं के स्वरूप की रक्षा करने में ज्ञान का महत्व है। यह कोई अनुभवी महापुरुष ही जान सकता है।
ज्ञान सम्पन्न पुरुष कभी साधना का विरोध नहीं करते, जैसे दूसरे साधकों द्वारा प्रयत्नपूर्वक साधनाएं होती है ठीक उसी प्रकार ज्ञानी के शरीर के भीतर साधना होती रहती है। साधना में प्रवृत्ति ही दुख की आत्यान्तिक निवृत्ति और परमानन्द प्राप्ति के लक्ष्य को बताती हैं। लक्ष्य की सिद्धि की उपयोगिता ही साधना की अन्तिम कड़ी है। अतः साधना मनुष्य जीवन का एक है।
श्रद्धा, विश्वास धारणा
किसी भी साधन को प्रारम्भ करने से पूर्व साधक को उसके प्रति पूर्ण श्रद्धावान्, विश्वासी अर्थात् प्रास्थावान् एवं धैर्यवान् होना आवश्यक है । जो साधक साधन के प्रति श्रद्धा अथवा अनास्था रखते हैं, उन्हें सिद्धि प्राप्त नहीं होती । अतः साधक को चाहिए कि यदि किसी साधन के विषय में उसके मन में तनिक भी सन्देह हो तो उसे करना कदापि प्रारम्भ न करे ।
इसी प्रकार साधना काल में साधक का धैर्यवान् होना परम आवश्यक है । जो साधक साधन में आने वाली कठिनाइयों के कारण अपना धैर्यं तथा साहस छोड़ बैठते हैं, उन्हें भी सिद्धि प्राप्त नहीं होती ।
अनेक बार ऐसा भी सुना और देखा गया है कि साधना काल मेंने वाली कठिनाइयों से विचलित हो जाने के कारण साधक को शारीरिक अथवा अन्य प्रकार की हानियाँ उठानी पड़ी हैं ।
अतः जब साधक में कठिनाइयों से लोहा लेने का साहस न हो, तब तक उसे किसी भी साधन में प्रवृत्त नहीं होना चाहिए ( तान्त्रिक साधनों का मार्ग खतरों से भरा हुआ बताया गया है। इसमें तनिक सी भी असावधानी, प्रमाद, भूल अथवा साहसहीनता साधक के लिए प्राणघातक सिद्ध हो सकती है।